गुरुवार, अक्तूबर 22, 2009

दिल्ली शहर की ट्रैफिक के हाल

दिल्ली शहर को विश्वस्तरीय बनाने का प्रयास लगातार हो रहा है। क्योंकि यह देश की राजधानी है। देश की राजधानी को अच्छा होना भी चाहिए। लेकिन यहां के ट्रैफिक की हालात अत्यंत ही दयनीय है। जिसे दुरूस्त किए बगैर दिल्ली को षायद विष्वस्तरीय नहीं बनाया जा सके। सड़कों पर आए दिन जाम लगती रहती है। रोड रोज की धटना धटती है और दुर्धटना होती रहती है। साथ ही और कई तरह के समस्याओं से लोगों को दो-चार होना पड़ता है। जाम का आलम यह कि आज-कल हर कोई कहीं न कहीं ट्रैफिक जाम में जरूर फंस जाता है। क्योंकि अगर सड़क पर जाम लगती है तो यह कब खत्म होगी यह कोई कहने की स्थिति में नहीं होता हैं। दिल्ली की सार्वजनिक पविहन व्यवस्था की हालात तो और भी खराब है। दिल्ली विष्वद्यिालय के उत्तरी परिसर से अगर आप षाम को गुड़गांव के लिए निकलते हैं तो आप कितने धंटे में वहां पहुचेंगं यह कहना मुष्किल है। जबकि दिल्ली से गुड़गांव की दूरी बहुत ही कम है। दिल्ली में ट्रॅफिक की यह समस्या तब है जब यहां कई फलाईओवर बना दिए गए हैं। रोज नित नई सड़कें बन रही हैं। अगर किसी व्यक्ति को बस पकड़ कर कहीं जाना है तो बस कब तक आएगा यह कोई ठीक से नहीं कह सकता है। जो बस आएगा भी उसमें आप चढ़ पाने लायक होंगें कि नहीं यह कहना बहुत ही मुष्किल है। कभी- कभी तो वह बस स्टाॅप पर रूके बगौर चली जाती है। फिर इंतजार करते रहिए आधा एक धंटा। अगली बस आने का। अगर आप बस में चढ़ भी जाते हैं तो बस में चढ़ने वाले को यह पता ही होगा कि लोगों से खचाखच भरी बस में सांस लेना भी कितना मुष्किल होता है। कई रूट तो ऐसा है जिस पर जेब तराष अति सक्रिय हैं। दिल्ली पुलिस की लापरवाही का आलम यह है कि वो जेबतराष को पकड़ने के लिए कोई खास प्रयास नहीं करती है। जिस वजह से यह जेब तराष बेखौफ होकर बसों में धुमते हैं। सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में जिस तरह से बस की हालात खराब है उसी तरह से आॅटो की स्थिति किसी प्रकार से ठीक नहीं कही जा सकती है। अगर आॅफिस के समय आप घर से निकलते हैं और सभी बसें भरी हुई आ रही है तो ऐसे में लोगों को आॅटो का ही सहारा बच जाता है। लेकिन ऐसी परिस्थिति में कभी-कभी लोगों को आॅटो नहीं भी मिलता है। संयोगवष अगर वह आपको मिल भी जाए है तो आॅटो वाला मीटर से चलने को राजी नहीं होगा। मीटर खराब है। यह उसका कहना होगा। उसके मनर्जी के अनुसार किराया दिजिए तब तो आप अपने गंतव्य तक जा सकते हैं। वरना बैठे ही रहिए बस स्टाॅप पर। आॅटो वाले के लिए हालांकि नियम बना हुआ है कि वह मीटर से ही चले लेकिन कोई भी इसका पालन नहीं करता है। आम आदमी को आॅिफस पहुंचने की जल्दी होती है। इसलिए कोई भी इसके विरोध में आवाज नहीं उठाता। ऐसा नहीं है कि आवाज उठाने वाला आदमी बिल्कुल नहीं है। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि आम आदमी द्वारा किए गए ष्किायत पर कितनी कारवाई आज तक वास्तव में हुई है। बस और आॅटो की यह हालात तब है जब दिल्ली की एक बड़ी आबादी इन्हीं सार्वजनिक परिवहन का लाभ लेते हैं। आए दिन सड़क पर कोई न कोई दुर्धटना धटती रहती है। नीजि और सार्वजनिक दोनों परिवहन ट्रैफिक नियम का ठीक से पालन नहीं करते हैं। इन नियमों को उनसे ठीक से पालन करवाना टै्रफिक वालों का दायित्व बनता है। जिससे आए दिन सड़कों पर रोड रेज की धटना और नित हो रही दुर्धटना में कमी आए। इसके लिए लोगों को टै्रफिक नियमों की जानकारी का पूर्ण प्रषिक्षण समय समय पर दिया जाना चाहिए। कई बार सड़कों पर समस्या इन जानकारियों के नहीं रहने से भी होता है। डाइवरी लाइसेंस देने में धांधली जग जाहिर है। इसलिए परिवहन लाइसेंस में दलाली को यथा षीध्र बंद करवाना चाहिए। इससे प्रषिक्षित चालक ही सड़कों पर गाड़ी चला सकंगंे जिससे सड़कों पर हो रही दुर्धटना को कमी आएगी। बड़े वाहन छोटे और पैदल यात्रियांे को कुछ नहीं समझते। जबकि उन्हें इनका सम्मान करना चाहिए। आज सड़कों पर पैदल यात्रीयों की संख्या बहुत ज्यादा है। अक्सर जल्दीबाजी और कई वजहों से पैदल और छोटे वाहनों के अधिकारांे का हनन होता है। दिल्ली यातायात पुलिस इन लोगों के अधिकार के लिए समय समय पर जो प्रयास करता हैं वो सराहनीय हैं। लेकिन अभी इस में सुधार की काफी गुंजाइष बाकी है। आजकल आम जनता भी अपनी बिजली पानी की समस्या के लिए सड़क जाम करते हैं। यह ट्रैफिक समस्या को और बढ़ाने का काम करता है। आम आदमी द्वारा सड़क जाम करना कहां तक जायज-नाजायज है यह तो कहा नहीं जा सकता लेकिन ऐसे में सड़क पर चल रहे लोगों की दिक्कतें अवष्य बढ़ जाती है। अगर कोई ऐसा उपाय ढूंढ़ा जा सके जिससे सड़क जाम होने की नौबत न आए तो बेहतर होगा। रोज सड़क पर कई नई गाड़ियां षामिल हो रही है। ऐसे कार वाले यहां ज्यादा हैं जो अकेला ही यात्रा करते हैं। उनकी गाड़ी सड़क का बहुत बड़ा हिस्सा लेती है। जिससे सड़क पर भीड़ बढ़ रहा है। ऐसे में सड़क का छोटा पड़ जाना स्वाभाविक ही है। दिल्ली में कारों की संख्या बहुत है। अगर कार वालों को अच्छा सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था उपल्बध कराया जाय तो निष्चित तौर पर बहुत सारे लोग कार छोड़ देंगें और सार्वजनिक परिवहन में यात्रा करने लगेंगे। इससे यातायात की बहुत सारी समस्या का स्वतः हल हो जाएगा। इसके अलावा दिल्ली में कई ऐसी सड़कें हैं जहां अभी भी अतिक्रमण है। सड़क के किनारे पटरी लगाई जाती है। सरकारी तंत्र अगर सिर्फ मूक दर्षक नहीं रहे और इन अतिक्रमणों को हटा दे ंतो सड़क पर गाड़ियों की चाल में अवष्य र्फक देखने को मिल सकता है। षहर में मेट्रो के आने से लोगों को थोड़ी राहत तो जरूर मिल जाएगी। लेकिन परिवहन व्यवस्था को सुधारने का दूसरा प्रयास भी जारी रहना चाहिए। जिससे लोग समय पर सुरक्षित अपने घरों को लौट सके। दिल्ली को अगर विष्वस्तरीय षहर बनाना है तो निष्चित तौर पर सबसे पहले यहां की परिवहन व्यवस्था में सुधार लाना होगा। खासकर सार्वजनिक परिवहन में। सरकार के परिवहन विभाग से इतनी सुधार की उम्मीद तो हरेक नागरिक करता ही है। अब इस उम्मीद पर खरा उतरना सरकार का काम है।

बर्दाशत की हद (दुनिया मेरे आगे)

हम सभी लोग जानते हैं कि बर्दाश्त करने से अत्याचार बढता है। इसके बावजूद हमलोग बर्दाश्त करते हैं और अत्याचार को एक मूक सहमति प्रदान करते हैं। मैं दिल्ली के एक मुहल्ले में रहता हूं। कुछ दिन पहले यहां पर एक मकान मालिक ने अपने एक किराएदार को एक छोटी सी धटना पर बुरी तरह पिट दिया। मकान मालिक का मार उस किराएदार ने चुपचाप सह लिया। वह किराएदार एक छात्र था जो कमीशन की तैयारी कर रहा था। मैं पूछता हूं जो अपने लिए नहीं लड़ सकता वो दूसरे के लिए क्या लड़ेगा? अगर वो किराएदार कम से कम एक बार पुलिस को 100 नम्बर पर फोन कर देता तो निश्चित तौर पर उसका पक्ष अवश्य सुना जाता। और वह मकान मालिक इस तरह साफ बच कर नहीं सकता था। इस तरह की धटना समाज में एक-दो ही धटित होती है लेकिन इससे अत्याचार सहने की हमें आदत सी हो जाती है। अत्याचार करने वाले का मनोबल इससे बढ़ता है। आखिर इस तरह हमलोग अत्याचार को क्यों बढ़ने दे। वर्तमान समय में यह एक बड़ा सवाल है जो समाज के सामने खड़ा दिखाई दे रहा है। दूसरा सबसे बड़ा सवाल जो सामने है वो यह कि छात्र की जब पिटाई हो रही थी उस समय उसके अगल-बगल के पड़ोसी सिर्फ मूक दर्शक बने सिर्फ देख भर क्यों रहे थे। किसी ने भी उस उग्र मकान मालिक को रोकने की जहमत नहीं उठाई। अन्याय के विरोध में आवाज न उठाना और एकजूटता का अभाव हम सभी पर कभी बहुत भारी पड़ सकता है। इसी तरह बर्दाश्त करने का एक नमूना बहुत जल्दी देखने को मिला। बर्दाश्त करने का यह नमूना मुझे बस में सफर करते समय देखने को मिला। बस में एक लड़की भी सफर कर रही थी। जो खड़ी थी। इतने में एक पाकेट मार ने उसका जेब काट लिया। लड़की को अपनी जेब कटने और पाकेट मार के बारे में भी पता चल गया था। लेकिन आश्र्चय की बात यह है कि वह लड़की चुप रही। न तो उसने खुद पाकेट मार से कुछ कहा और न ही किसी सहयात्री से ही। अगले स्टाप पर जब वह पाकेट मार बस से उतर गया तब उस लड़की ने इस धटना के बारे में कुछ लोगों बताया। यह सूचना जंगल की आग की तरह पूरे बस में तुरंत ही फैल गया। सभी यात्री तरह-तरह की बातचीत करने लगे। जब मैनें उस लड़की से कहा कि पाकेट मार के बस में रहते ही उसने सबको क्यों नहीं बताया और उस पाकेट मार को पकड़ने का प्रयास क्यों नहीं किया। तो उसने साफ शब्दों में कहा कि इससे कोई फायदा नहीं होने वाला था। देखने में वो पढ़ी-लिखी किसी बड़ी कम्पनी में काम करने वाली संभ्रात लड़की दिख रही थी। लेकिन उसने जो जवाब दिया वह मुझे ठीक नहीं लगा। परिणाम क्या होता इसको अगर छोड़ भी दे तो मुझे लगता है कि उसे यूं चुप रहने की बजाय उसे एक बार पहल अवश्य करना चाहिए था। उसने बर्दाश्त यह सोच कर कैसे कर लिया कि कुछ नहीं होगा। मेरा बचपन गांव में बीता है। 2000 ईस्वी में मैनें गांव छोड़ दिया था। इससे पहले मैनें वहां बर्दाश्त सहने और न सहने के बीच एक बहुत बड़ी लड़ाई देखी है। 1998 तक वहां गरीबों पर अत्याचार होता रहा। लेकिन जब यहां का गरीब एकजूट हुआ अत्याचार के विरोध में आवाज उठाया, थाना पहुंचा, अपने अधिकार को समझा तो आज वहां का परिदृश्य कुछ और ही है। अब वहां पर अत्याचार बन्द हो गया है। अब वहां सिर्फ निवेदन और अनुनय-विनय से ही काम लिया जाता है। गांव के लोगों ने जब तक बर्दाश्त किया तब तक उन पर जुल्म होते रहे। जब उन्होंने बर्दाश्त करना बन्द कर दिया तो सभी प्रकार का अत्याचार वहां बन्द हो गया। आज अपने को शिक्षित सभ्रांत समझने वाले शहर को उस गांव से सीख लेनी चाहिए। नहीं तो हम शहरी लोगों में गलत बर्दाश्त करने की आदत पड़ जाएगी। दूसरे के लिए तो नहीं ही लड़ पाएंगे। खुद के लिए भी लड़ पाने लायक नहीं रह जाएंगें। अतः जरूरत है कि गलत को बर्दाश्त न करें उसके विरोध में आवाज उठाएं।

जनसत्ता में 17अगस्त को दुनिया मेरे आगे में प्रकाशित

मंगलवार, अप्रैल 28, 2009

अभिनेता चले नेता को जितने

चन्दन कुमार चौधरी
बिहार और झारखंड में सभी पार्टियां अभिनेताओं के सहारे चुनावी जंग जीतने की फिराक में हैं। चिलचिलाती गर्मी और नेताओं को सुनने में घटती दिलचस्पी के कारण जब भीड़ घटने लगी तो नेताओं ने नए पैंतरे अपनाने शुरू कर दिया। यही कारण है कि फिल्मी दुनिया के कई नामी-गिरामी कलाकार इन दिनों विभिन्न पार्टियों के लिए यहां चुनाव प्रचार में जुटे हुए हैं। उन्हें न तो तपती धूप की परवाह है, न ही खस्ता हाल सड़कों की। वह तो बस अपने उम्मीदवार को जिताने के जोश में लगे हुए हैं। मतदाता भी इन फिल्मी कलाकारों को अपने बीच पाकर खुश है और इन्हें देखने के लिए बड़े जोश के साथ चुनावी रैलियों ने आ रहे हैं। अपने उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार के दौरान ये फिल्मी कलाकार जमकर फिल्मी डायलाग बोल रहे हैं। और तो और मतदाताओं को लुभाने के लिए ये कलाकार स्थानीय भाषा में अपने पार्टी के पक्ष में वोट डालने की भी अपील कर रहे हैं, जिसे देखकर स्थानीय लोगों में खासा उत्साह नजर आ रहा है। यही कारण है कि बिहार और झारखंड की जनता इस चुनावी मौसम में बेटिकट ही अभिनेताओं को देखने का मजा ले रहे हैं। यहां इन दिनों निशा कोठारी, टीवी कलाकार श्वेता तिवारी, पूनम ढ़िल्लन, जीनत अमान सहित कई कलाकार विभिन्न पार्टियों के पक्ष में चुनावी सभा कर रही हैं। अभिनेत्री महिमा सिंह रांची में जहां कांग्रेस प्रत्याशी सुबोध कांत के लिए प्रचार में जुटी हुई हैं, वहीं मशहूर फिल्म अभिनेत्री कोइना मित्रा झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी की पार्टी के लिए चुनाव प्रचार कर रहीं हैं। बिहार में भी फिल्म और टीवी कलाकारों की मांग इन दिनों काफी बढ़ गई है। चुनावी मैदान में उतरे प्रत्याशी अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए इन कलाकारों का सहयोग लेना नहीं भूल रहे है। कुछ प्रत्याशी तो ऐसे हैं, जिनके घर में ही कलाकार हैं। रामविलास पासवान का बेटा चिराग पासवान और शत्रुध्न सिन्हा की बेटी सोनाक्षी अपने पिता के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं। चुनावी सभा में भीड़ खिचने वाले यह अभिनेता अपने प्रत्याशियों के पक्ष में कितना वोट ला पाएंगे, यह तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा। फिलहाल बिहार और झारखंड में चुनाव का फिल्मी शो जारी है।
चन्दन कुमार चौधरी
आम चरण के तीसरे चरण में सिक्किम में लोकसभा और राज्यविधान सभा के सभी सीटों के लिए मतदान होना है। यहां लोकसभा की एक और विधानसभा की बत्तीस सीट है। यहां मुख्य मुकाबला सत्तारुढ़ सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट और विपक्षी कांग्रेस के बीच होना है। सिक्किम में इस बार के चुनाव में पूर्व की ही तरह स्थानीय मुद्दे ही हावी है। सत्तारुढ़ सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट लगातार तीसरी बार यहां सत्ता में हैं। यह पार्टी इस बार का चुनाव लगातार चौथी बार जीत कर इतिहास रचना चाहती है। इससे पहले लगातार तीन बार सत्ता में आने का कारनामा वाम पार्टी बंगाल और त्रिपुरा, राष्टÑीय जनता दल बिहार, कांग्रेस अरु णाचल प्रदेश, भाजपा गुजरात, और सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट सिक्किम में आ चुकी है। लेकिन आजादी के साठ साल बाद भी कोई पार्टी किसी राज्य में लगातार चार बार सत्ता में नहीं आई है।पिछले बार एसडीएफ को वहां के बत्तीस विधानसभा में से इकतीस सीटों पर और राज्य की एक मात्र लोकसभा सीट पर विजय प्राप्त हुई थी। लेकिन इस बार हालात कुछ अलग है। परिसीमन के बाद 32 में 27 विधानसभा क्षेत्रों पर इसका प्रभाव पड़ा है। जिसका असर चुनाव में पड़ने की पूरी संभावना है। साथ ही इस पार्टी को सत्ता विरोधी लहर का सामना भी इस चुनाव में करना पड़ सकता है। सिर्फ इतना ही नहीं 30 अप्रैल को होने वाले चुनाव में स्थानीय मुद्दा बहुत ही हावी है। इनमें सिक्किम को आदिवासी राज्य का दर्जा देने और मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग की कथित दोहरी नागरिकता का मुद्दा प्रमुख है। जिन मुद्दों पर एसडीएफ धिरती नजर आ रही है। प्रकृति की गोद में बसे इस पर्वतीय राज्य में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमुत्री नरबहादुर भंडारी जातिगत समीकरण से लेकर स्थनीय मुद्दे पर भी एसडीएफ को इस बार कोई छुट देने के मूड में नहीं है। हालांकि पिछले चुनाव में लगभग तीन लाख मतदाताओं वाले इस राज्य में विधानसभा के लिए पड़े मतों में से 71.09 फीसदी मत एसडीएफ को मिला था। इस बार इन मतों को अपने पक्ष में रखने के लिए सत्तारुढ़ पार्टी को भारी मशक्कत करनी पड़ रही है। मतदान की तारीख नजदीक आने के साथ ही आरोप-प्रत्यारोप का दौर तेज हो चुका है। साथ ही पक्ष और विपक्ष के कार्यकर्त्ता पूरे उत्साह के साथ चुनाव प्रचार में जुटे हुए हैं। पिछले चुनाव परिणाम को देखते हुए विपक्षी पार्टियां अगर सत्तारुढ़ दल की सीट कम करने में अगर कामयाब होती है तो यही असकी बहुत बड़ी जीत मानी जाएगी।

रविवार, अप्रैल 26, 2009

गुजरात मे चुनाब

आम चुनाव के तीसरे चरण में गुजरात की स·ाी 26 संसदीय सीटों के लिए मतदान होना है। यहां पर मुख्य मुकाबला ·ााजपा और कांग्रेस के बीच है। ·ााजपा के चुनाव प्रचार की कमान राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों में है, वहीं कांग्रेस में यह जिम्मेदारी राष्टÑीय नेताओं के कंधोें पर है। वहां सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह जैसे वरिष्ठ नेताआें से लेकर स्थानीय कांग्रेस कार्यकर्ता चुनाव प्रचार में जोर-शोर से जुटे हुए हैं। इस बार गुजरात का चुनावी मुद्दा विकास है।नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में दूसरी बार विधानस·ाा चुनाव जीतने के बाद ·ाी चौदहवीं लोकस·ाा चुनाव में ·ााजपा को वहां 26 सीटों में से मात्र 14 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। मोदी इस बार के चुनाव में यहां अधिक से अधिक सीट जीतना चाहते हैं जिससे पार्टी में उनका कद ऊंचा बना रहे। आजादी के बाद से लगातार तीन बार सत्ता में आने का करिश्मा बहुत कम बार ही सं·ाव हो सका है। उसमें गुजरात ·ाी एक है जहां ·ााजपा लगातार तीन बार सत्ता में आई है।गुजरात में इस बार का चुनाव मोदी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ है। ·ााजपा का स्टार प्रचारक होने के बाद ·ाी वह गुजरात में पूरा समय दे रहे हैं। वह गुजरात में एक दिन में 7 चुनावी स·ााएं कर रहे हैं। गुजरात ·ााजपा में मोदी ही सर्वेसर्वा हैं। यहां ·ााजपा मतलब मोदी और मोदी मतलब ·ााजपा है। ऐसे में ·ााजपा की हार-जीत मोदी की हार-जीत मानी जाएगी। टिकट वितरण से लेकर हरेक महत्वपूर्ण निर्णयों में मोदी की ही चलती है। मोदी उग्र हिन्दुत्व और उग्र राष्टÑवाद से होते हुए अब विकास पुरुष के रुप में मैदान में हैं। सांप्रदायिकता की राजनीति से लेकर उन्होंने सामाजिक समीकरण तक का पूरा ख्याल रखा है। जातिगत समीकरण में गुजरात के सबसे मजबूत माने जाने वाले पटेल समुदाय अब तक ·ााजपा के साथ था लेकिन इस बार उसके जाति के उम्मीदवार के साथ जाने की सं·ाावनाएं प्रबल हैं। मतलब इस जाति के वोट ·ााजपा और कांग्रेस दोनों को मिलेंगे। वहीं कुछ समय पहले तक खुद को हिंदू नहीं मानने वाला आदिवासी समाज आज मोदी के साथ खड़ा है। मोदी खुद ·ाी ओबीसी समुदाय से आते हैं। गुजरात में नौ फीसदी मुसलमान हैं। ·ााजपा द्वारा इस बार सांप्रदायिक कार्ड नहीं खेलने से कांग्रेस ने राहत की सांस ली है। कांग्रेस को इसका डर है कि अगर वोटों का बंटवार सांप्रदायिक आधार पर होता है तो उसे ·ाारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। ऐसे में वहां चुनाव विकास के मुद्दे पर ही होना है। दूसरी तरफ कांग्रेस का दावा है कि गुजरात के विकास में केन्द्र का बहुत बड़ा योगदान है। मोदी झुठ-मूठ की वाहवाही लूट रहे हैं। मोदी के राजनीतिक ·ाविष्य के लिए गुजरात इस बार बहुत अहम है। अगर कांग्रेस ·ााजपा को पिछले चुनाव की तरह मात देती है तो मोदी का कद निश्चत तौर पर ·ााजपा में घटेगा। कांग्रेस किसी ·ाी कीमत पर इस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहेगी।

सोमवार, अप्रैल 20, 2009

तमिल मुद्दा पर राजनीती

लोक सभा चुनाव के मद्दे नजर वर्तमान समय में सभी पार्टी क्षेत्रीय और राष्टÑीय मुद्दे के ऊपर चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन देश में एक ऐसा राज्य भी है जहां पड़ोसी राष्ट्र का मुद्दा छाया हुआ है। दक्षिण का वह राज्य तमिलनाडू है जहां श्रीलंका का तमिल समस्या पर चुनावी बिसात बिछाई जा रही है।श्रीलंका के तमिल मसले पर भारत में कई वर्षों से राजनीति होती आ रही है। श्रीलंकन तमिल का मसला बहुत ही संवेदनसील मसला है। इस वजह से हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या तक हो गई थी। एलटीटीई को उनके प्रधानमंत्री रहते हुए श्रीलंका नीति पसंद नही आई। जिस वजह से 20 मई 1991 को एलटीटीई ने उनकी हत्या कर डाली तमिलनाडू में इस बार लोकसभा चुनाव की घोषणा होने से पूर्व ही यह आभास होने लगा था कि चुनाव में श्रीलंका के तमिल जरूर अहम चुनावी मुद्दा होगा। जिस तरह से श्रीलंका में एलटीटीई के पांव उखड़ते चल जा रहा है, उनकी बैचेनी का असर तमिलनाडू में लोकसभा की तैयारियों में जुटे प्रमुख राजनीतिक दलों में दिखाई पड़ रहा है। तमिलनाडू में दो गठबंधन के बीच आमने-सामने का मुकाबला होना है, जिसमें डीएमके सुप्रीमो करूणानिधि और एआईएडीएमके प्रमुख जयललिता प्रमुख सेनापति हैं जिसके नेतृत्व में लड़ाई लड़ी जानी है। इस चुनाव में रामदास की पार्टी पीएमके पांच साल सत्ता सुख भोगने के बाद फिर से जयललिता के साथ खडेÞ हैं, क्योकिं इस पार्टी को इस बार लगा कि इस चुनाव में जयललिता, करूणानिधि के मुकाबले बीस साबित हो सकती है ऐसे में हमें फायदा मिल सकता है।चुनाव घोषणा से पूर्व ही राज्य के मुख्यमंत्री करूणनिधि ने तमिल कार्ड खेला था, जिसकी वजह से के न्द्र की राजनीति में हलचल मच गई थी। करूणानिधि राज्य में बिजली कि किल्लत से जनता का ध्यान बांटने के लिए यह हथकंडा अपनाया था जिसका उपयोग वर्तमान में वंहा की सभी पार्टी करने लगा है। तमिल मुद्दा एक ऐसा मुद्दा है जो तमिलनाडू के लोगों की भावना से जुड़ा हुआ है। यही वजह है कि वाइको वहां तमिल पर ही राजनीति करते हैं। कुछ दिन पहले वाइको ने खुलेआम यह कहा था कि अगर श्रीलंका में एलटीटीई प्रमुख प्रभाकरण को कुछ हुआ तो देश में खून की नदियां बह जाएगी । वाइको का यह बयान पूरी तरह से राजनीतिक बयान है जो वहां क ी जनता को इमोशनल ब्लैकमेल कर रहा है। वाइको इस बार के चुनाव में जयललिता के साथ खड़े हैं। जयललिता खुद सदैव तमिल मसले से दूर रही है, लेकिन इस बार वो पूरी तरह से वाइक ो के साथ खड़ी दिख रही है। पिछले चुनाव में जयललिता को करारी शिकस्त खानी पड़ी थी । अत: इस बार के चुनाव में वह करू णानिधि को करारी मात देना चाहती है, जिसके वजह से वह भी इस मुद्दे पर वाइको के साथ पूरी तरह से खड़ी दिख रही है। लोकसभा की 39 सदस्यों वाली इस राज्य में जयललिता का प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब तभी पूरा हो सकता है जब क्षेत्रीय, राष्टÑीय और अन्तरराष्टÑीय मुद्दों को वह चुनाव में आजमाए।1996 के बाद से देश में गठबंधन की राजनीति जोरों पर है। केन्द्र में अब जो भी सरकार आती है वो गठबंधन की ही सरकार होती है। ऐसे में एक-एक सांसदों का महत्व बढ़ गया है। इस वजह से तमिलनाडू का केन्द्र की राजनीति में बहुत महत्व है । इस वजह से वहां की सभी पार्टी श्रीलंकन तमिल के मामले को भुना रहे हैं। अब ऐसे में वहां श्रीलंका के तमिल का मुद्दा चुनाव पर कितना प्रभाव छोड़ पाता है यह चुनाव परिणाम के बाद ही पता चलेगा

vam morcha की halat

बंगाल में वाम मोर्चा तीन दशक से सत्ता पर काबिज है। वाम पार्टियों की सबसे बड़ी ताकत बंगाल ही है। पिछले लोकसभा चुनाव में वाम पार्टियों को आजादी के बाद अब तक की सबसे बड़ी सफलता मिली थी, जिसकी वजह से वह केन्द्र में किंग मेकर की भूमिका में रही । पश्चिम बंगाल और केरल की इस पार्टी की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। यह दोनों राज्य वाम पार्टियों का गढ़ है, जहां से इस पार्टी को शक्ति मिलती है। इस बार के चुनाव में वाम पार्टियों की हालत अपने ही गढ़ में ठीक नहीं लग रहा है। जहां केरल इस बात का गवाह रहा है कि वहां प्रत्येक पांच साल पर होने वाले चुनाव में सत्ता बदल जाती है। वहीं पश्चि बंगाल में ममता बनर्जी ने वाम पाटियों की नाक में दम कर रखा है। केरल ऐसा राज्य है जहां पिछले चुनाव में वाम पार्टियों को भारी सफलता मिली थी। अपने इतिहास के मुताबिक जैसा केरल में होता आया है, इस बार भी अगर ऐसा होता है तो इस पार्टी को इस बार वंहा भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसके अलावा वहां इन पार्टियों की आन्तरिक कलह भी पार्टी को नुकसान अवश्य ही पहुचांएगी ही। वी एस अच्युतयानन्दन और पी विजयन के बीच का द्वन्द्व पार्टी के हित में कतई नहीं होगा। इसका नुकसान पार्टी को चुनाव में उठाना पड़ सकता है। दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल वाम दलों का मजबूत किला है। जहां लम्बे समय से कोई भी पार्टी सेंध नहीं लगा सकी है। इस चुनाव में वाम के इसी गढ़ में लाल झंडा की हालत ममता बनर्जी ने खराब कर रखी है। ममता बनर्जी ने जिस तरह से नंदीग्राम और सिंगूर मामले में वहां नेतृत्व किया इससे ममता वहां काफी लोकप्रिय हो गई है। ममता बनर्जी को पिछले दो सालों में वहां काफी लोकप्रियता मिली है। उसने इस चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन करके वाम दलों को कड़ी चुनौती पेश की है। ममता बनर्जी की पार्टी तृणमुल कांग्रेस शहरी वर्ग में पहले से ही लोकप्रिय थी लेकिन अब उसने शहर से बाहर गावों के मतदाताओं में भी काफी लोकप्रियता हासिल कर ली है। इसके अलावा वर्षों से वाम दलों को मिल रहे मुस्लिम मतों का भी ममता के तरफ झुकाव हुआ है। सिर्फ इतना ही नहीं बुद्धिजीवी वर्गें का कम्युनिस्ट पार्टी को वर्षों से मिल रहा समर्थन भी इस बार पहले की तरह नहीं मिल पा रहा है। इन वजहों से वाम दलों को लोकसभा चुनाव में बंगाल में परेशानी उठानी पड़ रही है।वाम दल तीसरे मोर्चा के गठन में अग्रणी भूमिका निभाने वाली पार्टी है। चुनाव परिणाम से पूर्व के अनुमान के मुताबिक वाम दलों की शक्ति में निश्चित कमी आने वाली है। ऐसी परिस्थितियों तीसरे मोर्चा का नेतृत्व करने वाला खुद कमजोर होगा तो मोर्चा की हालत का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। वाम पार्टियों ने शायद यह भांप लिया है कि वो कमजोर हो रही है ,इसलिए वो तीसरे मोर्चा के सहारे अपनी शक्ति और रजनीति को आगे बढ़ाने का प्रयाश कर रहा है।

शुक्रवार, अप्रैल 17, 2009

डेल्ही मे चुनाब

इस बार का लोकसभा चुनाव कई मायनों में पूर्व हुए चुनावों से अलग है, लेकिन दिल्ली के चुनाव में इस बार भी मुकाबला आमने -सामने का ही है। चुनाव पूर्व आए रिपोर्टों के मुताबिक इस बार केन्द्र में सरकार बनने या न बनने में सिर्फ 15-20 सीटों का ही अन्तर रहेगा। ऐसे में सभी पार्टीयां एक-एक सीट पर जी तोड़ मेहनत कर रही है। यही वजह है कि दिल्ली के सातों लोकसभा सीटों पर सभी पार्टीयां अपना पसीना बहा रही है। एक -एक सीट के वजह से ही इस बार पूर्वोतर की सभी सीटों पर हरेक पार्टी ध्यान देने से नहीं चूक रही। ऐसे में भला वो दिल्ली की सात लोकसभा सीटों पर ध्यान देने से चूक कैसे कर सकती है। हाल में हुए दिल्ली विधानसभा सभा चुनाव में कांग्रेस ने लगातार तीसरी बार सत्ता हासिल की है। कांग्रेस की इस सफलता से उसके पार्टी के नेता तक हतप्रभ रह गए थे। इससे पहले लगातार तीन बार सत्ता में बामपंथी पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा, राष्टीय जनता दल बिहार, कांग्रेस अरूणाचल प्रदेश, भारतीय जनता पार्टी गुजरात, सिक्किम डेमोकेटिक फंट सिककम में आया हुआ है। भारत की आजादी के बाद से हुए चुनाव में सत्ता पांच -दस वर्षो में बदलती रही है,लेकिन दिल्ली में कांग्रेस लगातार तीन बार सत्ता में आए तो चौंकना स्वाभाविक है। कांग्रेस की इस सफलता में शीला दीक्षीत की अहम भूमिका रही है। विपक्षी पार्टी तक कांग्रेस की इस सफलता का श्रेय शीला दीक्षीत को ही दिया। यह अलग बात है कि खुद कांग्रेस पार्टी इसका श्रेय शीला दीक्षित को देने को तैयार नहीं है और सारी वाह-वाही सोनिया गाँधी लूट के ले गई। विधान सभा में मिली सफलता के वाबजूद इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अपने को सुरक्षित नहीं महसूस कर रहीे है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि इस बार मुकाबले में शीला दीक्षित और विजय कु मार मलहोत्रा नहीं है बल्कि यह चुनाव दोनों तरफ के सक्षम प्रत्याशियों के बीच लड़ी जानी है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सात लोकसभा सीट में से छह सीट पर कांग्रेस विजय हुई थी । इस बार अगर जनता बदलाव के लिए वोटिंग करती है तो नुकसान कोंग्रेस को ही होगा और भाजपा आगे बढ़ेगी।चुनाव से कुछ दिन पहले 1984 सिख विरोधी दंगे का भूत फिर से बाहर आया है ,जिसकी वजह से कांग्रेस को अपने दो प्रत्याशी सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर को बिना लड़ाए ही मैदान से हटना पड़ा । कांग्रेस अपने प्रत्याशी को मैदान से हटा कर शायद चुनाव में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद करने लगी है। परंतु यह नहीं भूलना होगा कि गृह मंत्री पी चिदम्बरम के ऊपर एक सिख ने ही जूता फेंका गया था। इससे जाहिर होता है कि 25 साल के बाद भी इस समुदाय के अन्दर कितना आक्रोश अभी भी दबा हुआ है। दिल्ली में पंजाबी समुदाय काफी संख्या में है। जो तिमारपुर, बादली, शालीमार बाग, शकूर बस्ती, बजीर पुर, पटेल नगर, मादीपुर, राजौरी गार्डन , तिलक नगर, हरी नगर, जनक पुरी, जहांगीर पुरी, मालवीय नगर, कालका जी, विश्वास नगर, कृष्णा नगर और शहादरा में भारी संख्या में रहते हैं । यह समुदाय अगर कांग्रेस के खिलाफ गई तो कांग्रेस को इसका खामियाजा न सिर्फ दिल्ली में बल्कि पंजाब तक में देखने को मिल सकता है। शायद इसी को देखते हुए कांग्रेस ने अपने दो प्रत्याशी को हटा लिया है। चुनाव परिणाम के बाद ही यह पता लगेगा कि इसका पंजाबी समुदाय पर क्या प्रभाव पड़ा। दिल्ली में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भी बहुत सारे लोग रहते हैं जो बुराड़ी, आदर्श नगर, बजीर पुर, उत्तम नगर, द्वारका,पालम,अम्बेडकर नगर, संगम विहार, तुगलकाबाद, बदरपुर, तिलेकपुरी, कोण्डली, सीलमपुरी, गोकुलपुरी, मुस्तफाबाद और करावलनगर में रहते हैं। यह समुदाय इस बार किस तरफ वोटिंग करते हैं यह देखने वाली बात होगी । इस समुदाय को लेकर दिल्ली की राजनीति में काफी उबाल रहा है। जहां बीजेपी ने लाल बिहारी तिवारी या किसी अन्य पूर्वाचली को टिकट नहीं दिया वहीं कांग्रेस ने महाबला मिश्रा को पश्चिम दिल्ली से लोकसभा का टिकट देकर बाजी मार ली है।कहा तो यह जाता हे कि दिल्ली में जाति ,धर्म आदि के आधार पर चुनाव नहीं होता है ,परंतुयहां भी टिकट वितरण में इन सब बातों पर ध्यान दिया जाता है। यही वजह है कि दिवंगत नेता साहिब सिंह वर्मा के बेटे प्रवेश वर्मा को टिकट न दिए जाने से दिल्ली के जाट समुदाय भाजपा से बहुत ही नाराज हो गए थे । हालांकि यह अलग बात है कि प्रवेश बाद में शांत हो गए । इस बार के चुनाव में सातों सीट पर बहुजन समाज पार्टी मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने के लिए कमर कस के तैयार खड़ी है। बसपा यहां केचुनाव में किसी पार्टी को लाभ किसी को हानि अवश्य ही पहुचांती है भले ही वो खुद कोइ्र सीट न जीत पाएं।दिल्ली में सात मई को होने वाले चुनाव में इस बार कड़ा मुकाबला देखने को मिलेगा। जहां कांग्रेस विधान सभा चुनाव और पिछले लोकसभा परिणाम को दोहराना चाहेगी वहीं भाजपा विधान सभा की करारी शिकस्त को और पिछले लोकसभा चुनाव की नाकामियों को मिटाना चाहेगी।

शनिवार, अप्रैल 11, 2009

पवार कई नावों में सवार

शरद पवार कृषि मंत्री से देश के प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। इस बार उन्हें लग रहा है कि प्रधानमंत्री बनने का मौका हाथ आ सकता है। इसलिए चुनाव न लड़ने का मन बना चुके पवार फिर से मैदान में हैं, और जमकर पैंतरेबाजी कर रहे हैं। इस चुनाव में मायावती, जयललिता, लालू, मुलायम, रामविलास सहित शरद पवार भी प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखते हैं। ये सभी नेता क्षेत्रीय पार्टी के नेता हैं,जिन्हें लगता है कि अगर कांग्रेस ओर भाजपा दोनों मिलाकर 250 तक सीट नहीं ला पाएं तो ऐसे में क्षेत्रीय पार्टियों का महत्व बढ़ जाएगा। ऐसे में ये किंग मेकर राजनीतिक सौदेबाजी के तहत खुद ही किं ग बन जाना चाहते हैं ।राजीव गांधी के मृत्यू के बाद 1991 में राजनीति से लगभग सन्यास ले चुके पी.वी.नरसिंह राव देश के प्रधानमंत्री बने तो पवार बहुत ही आहत हुए थे।शरद पवार को ऐसा लग रहा था कि, पार्टी उन्हें ही प्रधानमंत्री बनाएगी लेकिन ऐसा नहींं हुआ। 1991 में शरद पवार प्रधानमंत्री तो नहीं बन पाएं लेकिन मन में प्रधानमंत्री बनने की वह इच्छा अभी तक दबी हुई है। नरसिम्हा राव के बाद कांग्रस पार्टी में अध्यक्ष पद के चुनाव में पवार को सीताराम केसरी से मात खानी पड़ी थी । जब विदेशी मूल के मामले पर वह कांग्रेस से अलग हुए तो उनके साथ पी.ए .संगमा, तारिक अनवर थे, लेकिन बाद में सत्ता का मोह पवार को फिर से कांग्रेस के साथ लाया और इनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पाटी ने कांग्रेस के साथ मिलकर महाराष्टÑ और केन्द्र तक में सरकार बनाई। पवार सत्ता से दूर नहीं रहना चाहते हैं। शरद पवार मराठा छत्रप हैं, वे 1978 में महाराष्टÑ में देश के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बनने वाले व्यक्ति थे। इनका राजनीति में बहुत ही सशक्त पदार्पण हुआ था । इस बार चुनाव की स्थिति को देखते हुए पवार ने अपना नाम पार्टी कार्यकताओं द्वारा आगे बढ़ाया। पवार यह मान रहे हैं कि इस बार के चुनाव में हालात अलग तरह का रहेगा जिसका फायदा चुनाव के बाद इन्हें प्रधानमंत्री के रूप में मिल सकता है। शरद पवार की मजबूती महाराष्ट्र है। जहां के चीनी मिलों से इन्हें शक्ति मिलती है। केन्द्र में कृषि मंत्री रहते हुए पवार ने जिस तरह अपनी शक्ति बढ़ाने और जनता के बीच में साख बनाने का काम किया है, उसका फायदा वो इस चुनाव में उठाना चाहते हैं। अभी राकपां को महाराष्ट में 9 सीटें ही है जबकि उन्हेंलगता है कि इस चुनाव में मराठी प्रधानमंत्री के नाम पर अधिक सीटें मिल सकता है । साथ ही शिवसेना का समर्थन भी उन्हें मराठी मानुष के नाम पर मिल सकता है। लेकिन शिवसेना ने अपना धोषणा पत्र जारी करते हुए कहा कि मराठी पीएम के मुद्दे पर पवार का समर्थन नहीं करूंगा। फिर भी पवार इस मुगलाते में हैं कि चुनाव के बाद महाराष्ट्रके प्रधानमत्री के नाम पर शिवसेना उनका समर्थन कर सकती है। जैसा कि उसने राष्टÑपति बनाने के लिए प्रतिभा देवी सिंह पाटिल का किया थादूसरी तरफ शरद पवार उड़ीसा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक के तरफ डोरे डाल रहे हैं। लाल झंडा भी बीजू पटनायक का समर्थन पाने को बेताब है क्योंकि माक्र्सवादी चाहते हैं कि केन्द्र में गैर भाजपा-गैर कांग्रेस सरकार बनें जिसमें इन छोटे दलों की भूमिका बहुत बड़ी होगी । ऐसे में शरद पवार को यह लगने लगा कि अगर यूपीए या, तीसरा र्मोचा सरकार बनाने के करीब रहती है और कुछ सदस्यों की जरूरत होगी तो सौदेबाजी के तहत मैं प्रधानमंत्री बन सकता हूं। ऐसा इसलिए भी संभव है क्योंकि शरद पवार का दूसरे पाटियों में इनके काफी भरोसेमंद और वफादार साथी मौजूद हैं जो पवार के नाम पर मुहर लगवाने का काम कर सकते हैं।राजनीति के माहिर खिलाड़ी शरद पवार फिलहाल यूपीए और बहुत ही गुप्त रूप से तीसरे मोर्चे के साथ हैं। चुनाव परिणाम के बाद बन रहे किसी भी परिदृश्य के लिए वे तैयार बैठे हैं। पवार को लग रहा है कि अगर इस बार प्रधानमंत्री नहीं बन पाएं तो आगे फिर कभी नहीं बन पाएंगें। ऐसे में पवार दो नावों यूपीए और तीसरे मोर्चे के साथ सवारी करना चाहते हैं। इस तरह की सवारी कभी-कभी बहुत खतरनाक भी साबित होता है।चन्दन कुमार चौधरी

चुनाब मे काला धन

चन्दन चौधरी , नई दिल्ली चुनाव के समय में टिकटों की खरीद-फरोख्त बहुत ही बढ़ जाती है। हरेक पार्टी पैसा लेकर टिकट बचती है। पिछले दिनों राजद सांसद साधू यादव ने यह आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ दिया कि,पश्चिम चंम्पारन जहां से मैं चुनाव लड़ना चाहता था उसे लोजपा ने प्रकाश झा के हाथों बेच दिया। हरेक पार्टी अपने कुछ प्रत्याशियों को टिकट बेचती है। देखा जाता है कि चुनाव के समय में बहुत सारी शक्ति सक्रिय हो जाती है।जो टिकटों की खरीद फरोख्त में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। जब कोई टिकट पाने भर के लिए कम से कम 30-40 लाख दे रहा हो। उसके सांसद बन जाने के बाद क्षेत्र का बुरा होना स्वभाविक ही है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव केबाद माग्रेट अल्वा ने खुले आम मीडिया में कहा कि चुनाव में मेरे पार्टी में टिकटोें की खरीद फरोख्त जमकर हुई । हालांकि उनके इस बयान का उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ा लेकिन वे अपनी बयान पे कायम रहीं।हाल के दिनों में मीडिया में यह खबर आई थी कि आंध्र प्रदेश में प्रजाराज्यम पार्टी के प्रमुख चिरंजीवी विधानसभा का एक टिकट 40 से 50 लाख और लोकसभा की एक टिकट ढ़ाई से तीन करोड़ में बेच रहे हैं । चिरंजीवी अपने पूरे फिल्मी जीवन में कभी भी इतना नहीं कमा सकें हैं जितना वो एक चुनाव के दौरान कमा रहे हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान साउथ के राज्यों में एक परिवार तीस से पैंतीस हजार तक कमा लेते हैं। चुनाव के दौरान अक्सर नेता और उनके कार्यकर्ता नोट बांटटे देखे जाते हैं।चुनाव के दौरान निकलने वाला यह धन वैसा रुपया होता है जिसका सरकार के पास कोई लेखा-जोखा नहीं होता है । चुनाव जीतने के लिए प्रत्याशी अपनाा काला धन प्रयोग में लाते हैं जिससे वे चुनाव जीत सके। कार्यकर्ता चुनाव के दौरान जितना खर्च दिखाते हैं, निश्चित तौर पर उनका खर्च उससे ज्यादा होता है। प्रत्याशियों के लिए चुनाव से बेहतर और कोई समय नहीं हो सकता जिसमें वो अपना काला धन बाहर निकाल सकें। विश्व अभी मंदी के दौर से गुजर रहा है, उसका असर भारत पर भी पड़ा है। चुनाव के दौरान दिखाके जितना धन खर्च होता है उससे ज्यादा छुपा क र होता है। इस धन से देश को मंदी से उबरने में कुछ मदद तो अवश्य ही मिलेगी ।

गुरुवार, अप्रैल 09, 2009

वनवास से लौटकर कहां जाएंगे ब्राह्मण

लोक सभा चुनाव की घोषणा होने के साथ ही बिहार की सभी पाटियां जाति की गोटी फिट करने में लग गयी है,क्योंकि बिहार में जाति के आधार पर चुनाव होता है। हरेक पार्टी के पास किसी न किसी जाति का वोट बैंक होता है। जहां राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू यादव माई समीकरण पर निर्भर हैं,वहीं नीतीश कुमार हम पर समीकरण पर।
इस बार बिहार में जद यू भाजपा गठबंधन से आरजेडी लोजपा गठबंधन का सीधा मुकाबला होना है । इन दोनों गठबंधन में बा्रह्मण कहीं भी वोट बैंक के रुप में नहीं है। बिहार की राजनीति में कभी ब्राह्मणों की तूती बोलती थी । यहां जग्ग्नाथ मिश्रा,भागवत झा आजाद सहित कई ब्राह्मण नेता मुख्यमंत्री रह चुके हैं। लेकिन लालू यादव के 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद यह समुदाय उपेक्षित होता चला गया। 90 के दशक में ब्राह्मणों के उपेक्षित होने में मंडल,कमंडल की राजनीति बहुत महत्वपूर्ण रही है। लालू यादव ने यहां अपनी एक ऐसी छवि बनाई जिस फल का स्वाद वो आज तक चख रहें हैं ।
बिहार में राममनोहर लोहिया के तीनों शिष्य लालू यादव,नीतीश कुमार ओर रामविलास पासवान ने बिहार को जिस वर्ग में बांट दिया उसमें बाह्मण समुदाय कहीं नहीं था । भाजपा जरुर ब्राह्मणों को साथ लेकर चल रही है लेकिन इस वर्ग का एक बड़ा समुदाय यह मान कर चल रहा है कि भाजपा नीतीश की हाथ का कठपुतली हो गई है। जिससे ब्राह्मणों का भाजपा से मोह भंग होने लगा है।
बिहार के लोकसभा चुनाव में सभी पार्टियों ने ब्राह्मण उस हिसाब से टिकट नहीं दिया है। जनता दल यू ने अपने कोटे के 25 लोक सभा सीट में से एक भी टिकट ब्राह्मणों को नहीं दिया है। जबकि भाजपा ने 15 में से सिर्फ दो टिकट ब्राह्मण को दिया है । जदयू ने 2004 के चुनाव में मात्र एक सीट ब्राह्मण क ो दिया था, जो झंझारपुर से पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा थे । उस चुनाव में वह लगभग पांच हजार मतों से चुनाव हार गए थे। इस बार के चुनाव में उस सीट से जदयू ने मिश्रा को टिकट न देकर मंगनी लाल मंडल को दे दिया है। जदयू ब्राह्मण को टिकट न दिए जाने पर कहती है कि मीडिया यह क्यों भूल जाती है कि हमने शिवानंद तिवारी को राज्यसभा में भेजा हुआ है, जबकि हमारी सहयेगी पार्टी बीजेपी ने दो टिकट ब्राह्मण को दिया ही है।
बिहार में ब्राह्मण समुदाय अपने को उपेक्षित महसूस क रने लगे हैं। ऐसे में लालू यादव ने ब्राह्मण के आगे चुग्गा फेंका है। गरीब ब्राह्मण को आरक्षण देने का चारा शायद ब्राह्मण को लुभा सकता है क्योंकि ब्राह्मण समुदाय नीतीश द्वारा पिछड़े समुदाय को सुविधा देने से डरे हुए हैं। उन्हें लगने लगा है कि लालू यादव सिर्फ ब्राहमणों के खिलाफ बयान देते थे जबकि नीतीश उनके हित के खिलाफ काम कर रहें हैं ऐसे में अगर उपेक्षित ब्राह्मण राजद के साथ चला जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। ऐसे में बिहार की राजनीति में फिर से कुछ परिवर्तन देखने को मिल सकता है।
अभी तक का हालात ऐसा है कि सभी पार्टी ब्राह्मण को साथ लाने में डर रहे हैं कि इससे कहीं बाकी जाति उनसे दूर न हो जाएं । ऐसे में ब्राह्मण विरोध से ही पैदा हुए लालू ब्राह्मण को साथ लाने का प्रयास कर रहे हैं। यह प्रयास लालू के हित में कितना रहता है यह तो चुनाव परिणाम के बाद ही पता चल पाएगा । फिलहाल लालू का यह प्रयास क्या उनके द्वारा ब्राह्मण समुदाय को दिया गया बनवास की समाप्ति साबित होगी।
चन्दन कुमार चौधरी

बुधवार, मार्च 04, 2009

सूरजकुंड के बहाने दो बात...

सूरजकुंड के बहाने दो बात... ‘‘इस कुंड की यह दुर्दशा! ’’ सुरजकुंड को देखकर सहसा ही अमित के मुंह से यह निकल गया । अमित अपने दोस्तों के साथ यहां धूमने के लिए आया है। मेला देखने के बाद वह पास के सुरज कुंड को देखने चला गया। इस जगह को देखने के बाद उसे इसका सहज अंदाजा हो गया कि इसकी भी कभी रौनक रही होगी । सूरजकुंड का इतिहास काफी पुराना है। इसे तोमर किंग अनंगपाल ने बनवाया था। यह तुगलकाबाद से 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । 1020 ईस्वी में बने इस वृताकार कुंड मंे भगवान सूर्य का भव्य मंदिर हुआ करता था। इसलिए इसे सूरज कुंड के नाम से जाना जाता है । बाद में दिल्ली पर सल्तनत वंश का राज्य हो गया। जिसके बाद अरावली पर नगर बसाया गया । और इस कुंड में पानी को संरक्षित रखा जाने लगा ताकि रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा किया जा सके । आज यह कुंड पूरी तरह से सुखा पड़ा है। इसमें पानी की एक बूंद भी नहीं है। जब फरीदाबाद और आस-पास के इलाकों में पीने का पानी न मिलता हो तो भला इतने बड़े कुंड में पानी कैसे होगा? इस कुंड की सीढ़ीयां इसकी महानता की कहानी खुद-ब-खुद बयान करती है। हालांकि इसकी हालात जर्जर हो चुकी है लेकिन स्थापत्य के इस बेजोड़ नमूना यह कहती है कि कभी इसके भी दिन सुनहरे रहे होगंे। आज हालत ऐसे हैं कि यहां कुछ जोड़ीयों को रंगरेलियां मनाते हमेशा देखा जा सकता है। यहां बंदरों की फौज भी बड़ी संख्या मे देखी जाती है। इन्हें यहां आए मेहमान से खाने- पीने को मिल जाता है। अमित के साथी रवि भारती इस कुंड की सीढ़ीयोें पर बैठने के साथ ही बोल उठता है- यार प्रशासन इस कुंड की इतनी उपेक्षा क्यों कर रही है? माना कि यहां पानी की समस्या है लेकिन इस ऐतिहासिक कंुड को अवश्य संरक्षण दिया जाना चाहिए। जिससे यहां दिल्ली आने वाले पर्यटक इसे भी देखने को आएं । नहीं तो कछ दिन बाद इस कुंड की सीढ़ीयों में लगे ईंट तक गायब होने लगेंगें। अमित बस मुस्कुरा कर रह गया।

अपना विचार।

1986 में शुरू हुआ शुरू हुआ सूरज कुंड मेला अपनी लोकप्रियता की सीढ़ियां चढ़ चुका है। हर साल यहां आने वाले पयर्टकों की संख्या में अच्छी खासी वृद्धि हो रही है। यह मेला हस्तश्ल्पि , वास्तुकला, और लोकनृत्यों का अनोखा संगम है। यहां आने वाले वास्तुशिल्पी, हस्तशिल्पी, और लोकनर्तकों के चेहरे की संतुष्टि इशारे में ही बहुत कुछ बता जाती है। लोकनर्तकों के साथ फोटो ख्ंिाचवाने के लिए जब कोई जाता है तो वे बहुत खुश होते हैं। मेले में मिल रहे मान, सम्मान और मेहनताना से हस्तशिल्पी, वास्तुशिल्पी और नर्तक, सब काफी प्रसन्न हैं। मेले की सुरक्षा व्यवस्था पूरी तरह से चाक-चैबन्द दिखती है। मेले में प्रशासन की मुस्तैदी लोगों को सुरक्षा से बेफ्रिक करती है। आज जब पूरे समाज से मेले शब्द की धारणा खत्म होती जा रही है इस माहौल में हरियाणा सरकार द्वारा इतने बड़े मेले का सालाना सफल आयोजन वाकई एक सराहनीय प्रयास है। लेकिन मेले में महंगे खाने के स्टॅाल और 50 रूपये की टिकटें कहीं न कहीं आम आदमी को मेले में आने से रोकती है। भले ही मेला प्रशासन के अपने कुछ तर्क और मजबूरीयां हो, लेकिन अगर खाने के दामों और टिकट में कमी हो सके तो आम आदमी भी इस मेले का भरपूर मजा उठा सकता है। राज्य सरकार को इस और अवश्य ही ध्यान देना चाहिए?

झलकियां

1 मेले परिसर के बाहर गाड़ी पार्किंग की व्यवस्था की गई थी। लेकिन अजीबोगरीब स्थिति तब पैदा हो गई जब एक कार वाला गाड़ी पार्क करने को लेकर दूसरे कारवाले से बुरी तरह से उलझ गया। दोनों कारों में सवार परिवार वालों के बीच- बचाव के बाद मामला शांत हुआ।

2 पूरे मेले परिसर में खाना बहुत ही मंहगा था। यहां तक की बाजार में उपलब्ध 4 रूपये की चाय यहां 10 रूपये में मिल रही थी। दिन चढ़ने के बाद भी काफी लोगों ने वहां खाना नहीं खाया। और ‘भूखे भजन न होई गोपाला’। नतीजा वे सब जल्दी घर को लौट रहे थे।

3 मेले में आए विदेशी सैलानियों ने यहां राजस्थान का मजा लिया। उन्होनें जमकर उंट की सवारी की। पांव में धुंधुरू और शानदार ढ़ंग से सजाए गए उंट बहुत ही आकर्षक लग रहे थे ।

4 मेले की भीड़ से अलग मीडिया सेंटर की व्यवस्था की गई थी। यहां का माहौल बिल्कुल शांत था। चाय- पानी की भी व्यवस्था रहने के कारण मीडियाकर्मीयों को यहां पीते-पिलाते देखा गया।

5 आईआईएमसी के छात्रों को लाने और ले जाने के लिए बस की व्यवस्था की गई थी। जाते वक्त अन्ताक्षरी की घुनों ने माहौल को जानदार बना दिया। लेकिन आते समय छात्र इतने थक गए थे कि कइयों के मुंह से आवाज भी नहीं निकल पा रही थी।

6 मेले में इस बार पहली बार मिस्र शामिल हुआ था। यह विशेष आकर्षण का केन्द्र भी रहा । यहां से आए प्रतिनिघि मिल रहे सम्मान से काफी खुश थें।

सूरज कुंडमेला

विश्व प्रसिद्ध सूरजकुंड मेला हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी आयोजित किया गया। इस मेले का उदधाटन देश के राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने किया । यह मेला केन्द्रीय पर्यटन मंत्रालय और हरियाणा राज्य पर्यटन मंत्रालय द्वारा संयुक्त रूप से करवाया जाता है ।यह मेला दिल्ली से सात किलोमीटर दूर हरियाणा के फरीदाबाद जिले में मनाया जाता है। हर वर्ष फरवरी माह में ही यह मेला लगता है। इस मेले में हस्तशिल्पीयों और वास्तुशिल्पीयों को एक मंच प्रदान किया जाता है । जिससे वे लोग ग्राहक से सीघा संपर्क करते हैं। इस मेले में बड़ी संख्या में लोगों की भागीदारी होती है। पिछले वर्ष यहां सात लाख से अधिक लोग आए थे । जिनमें से 25,000 हजार विदेशी नागरिक थे । इस वर्ष उम्मीद है कि कम से कम साढ़े सात लाख व्यक्ति इस मेले का लुफत उठाएंगें ।इसमें विदेशी सैलानियों की संख्या पिछले वर्षों से ज्यादा होने की संभावना है। हालांकि मेला अधिकारी राकेश जून ने बातचीत में विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का असर इस मेले पर भी पड़ने की आशंका व्यक्त किया है लेकिन आने वाले भीड़ से वह उत्साहित हैं। रविवार को इस मेल को देखने के लिए लगभग 1से डेढ़ लाख व्यक्ति यहां पहुंचते हैं । इस मेले को देखने वाले में दिल्ली एनसीआर जिसमें नोएडा, ग्रेटर नॉएडा ,गुड़गांव ,साहिबाबाद ,से बड़ी संख्या में लोग आते हैं । यह मेला 400 एकड़में फैले प्रकृति की गोद में होती है। 1986 से शुरू हुआ यह मेला लोकनृत्यों के प्रेमी के आकर्षण का विशेष केन्द्र भी रहा है । इस वर्ष यहां उड़ीसा ,असम ,पंजाब ,हरियाणा, गुजरात और राजस्थान के लोक कलाकार आए हुए हैं। यहां विभन्न कलाकारों के नृत्य और सेगीत का मजा लेने वालों की हर साल काफी भीड़ उमड़ती है। यहां पंताबी और हरियाणवी संगीत पर लोगों को झूमते हुए जगह-जगह आसानी से देखे जा सकते हैं। इन नृत्यों के लिए सूरजकुंड में एक चैपाल बना हुआ है। जहां यह कलाकार अपने कला का प्रदर्शन करते हैं। यहां आए कलाकारों को इस मेले से 10से 30 हजार तक की कमई आसानी से हो जाती है सूरजकुंड के मेले में 50 रूपये का प्रवेश शुल्क रखा गया है। लेकिन विदयार्थीयों के लिए कोई प्रवेश शुल्क नहीं है। पिछले वर्ष इस मेले में टिकट बेचकर 15,937हजार डाॅलर की आमदनी हुई थी। यहां आए हस्तशिल्पीयों और वास्तुशिल्पीयों का सामान भी खुब बिकता है जिसमें उन्हें अच्छी खासी आमदनी होती है । इस मेले में इस बार मेले का विशेष आकर्षण का केन्द्र मिस्र का पंडाल रहा। वह इस मेले में विशेष आमंत्रित देश हैं। वहांसे आए प्रतिनिधि ने बातचीत में बताया कि यहां जितना हमें सम्मान मिला है मैं उससे अभिभूत हूं। मैं हर साल यहां आना चाहूंगा। मिस्र के साथ-साथ इस मेले में सार्क के भी सभी देश शामिल हुए हैं। सार्क देशों के पंडाल को देखने के लिए भी दर्शकों की भाड़ी भीड़ उमड़ती है। मघ्यप्रदेश इस बार मेले का थीम था। जिससे मघ्यप्रदेश पंडाल मेलेमें आए हरेक व्यक्ति देखना कतई नहीं भूलता है। पूरे मेला परिसर में सुरक्षा व्यवस्था चाक-चैबन्द है। चप्पे-चप्पे पर प्रशासन की पूरी नजर है । जगह-जगह सीसी टीवी के कैमरे लगे हुए हैं ।मेले के बाहर अगिनशमन की गाडियां किसी भी विशेष परिस्थितियों के लिए खड़ी है। साथ ही मेले में डाक और एटीएम जैसी सुविधा भी उपलब्ध करवाई गई है। परिसर के बाहर गाड़ी पार्किंग के लिए बड़ी जगह है। जहां लोग अपनी गाड़ी खड़ी करते हैं ।रविवार को यहां लगभग 30हजार के करीब वाहन आ जाते हैं

विश्व सुरक्षा एंव क्षेत्रीय संगठन

चंदन कुमार चैधरी, नई दिल्ली - आज विश्व में कई क्षेत्रीय संगठन है। जिसके अपने अलग -अलग हित हैं। लेकिन इन क्षेत्रीय संगठनों के बनने से विश्व की सुरक्षा एंव शान्ति मे बढ़ोतरी हुई है। द्वितीय विश्व युद्ध ने विश्व में सुरक्षा और शान्ति को ध्वस्त कर दिया था । जिससे सबक लेते हुए अमरीका, रूस , फांस आदि महाशक्तियों ने व्यवहारिक कदम उठाते हुए मानव अस्तित्व की रक्षा के लिए 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना किया था । 1945 में ही गठित अरब लीग से लेकर 2008 में बने यूनासूर तक कई क्षेत्रीय संगठन अपने उद्देश्य के साथ शांति और सुरक्षा के कार्य में लगे हुए हैं क्षेत्रीय संगठन की उपयोगिता अमरीकी सीनेटर वेण्डनबर्ग के अमरीकी संसद कांग्रेस के उच्च सदन सीनेट में दिए गए इस बयान से साबित होता हैः- शक्ति को शक्ति द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है । हमें विश्व को द्विध्रुवीय से बहुध्रुवीय बनाना होगा , जिससे शक्तियां विकेन्द्रित रहेंगी । संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपने चार्टर के अनुच्छेद 33 में क्षेत्रीय संगठनों की उपयोगिता को स्वीकार करके मान्यता दी गई है । संध की मान्यता है कि क्षेत्रीय संगठन के सहयोग से शान्ति ,विकास , और सुरक्षात्मक कार्यों को विश्व में आगे बढाया जा सकेगा ।

विश्व में कई क्षेत्रीय संगठन है जिनमें से कुछ अरब लीग, अमेरीकी राज्यों का संगठन जिसे संक्षेप में ओ,ए,एस कहा जाता है , यूरोपीय आर्थिक समुदाय , अफ्रीकी एकता संघ , आसियान, गल्फ सहयोग परिषद , दक्षिण एश्यिा सहयोग संगठन यानि सार्क , एशिया -प्रशांत आर्थिक सहयोग संघ, हिमतक्षेस ,यूनासुर प्रमुख हैं । इनके सहयोग से संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व सुरक्षा एंव शान्ति को बढ़ावा देने में ज्यादा सफल साबित हो रही है। यह संगठन क्षेत्रीय हितों के साथ-साथ सम्पूर्ण मानवता के लिए जैसं मानव अधिकार , विश्व कल्याण ,मुक्त बाजार और अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद के उन्मूलन के लिए भी कार्य कर रहा है।

मीडिया पर मंदी का असर पड़ेगा

मीडिया पर मंदी का असर पड़ेगा भारतीय जनसंचार संस्थान के रेडियो और टेलीविजन विभाग में सह आचार्य शाश्वती गोस्वामी का कहना है कि मीडिया पुरी तरह से विज्ञापन पर निर्भर है । मंदी की वजह से मीडिया सेक्टर को विज्ञापन नहीं मिल रहा है जिससे इस विभाग में आगें कुछ दिनों के लिए भर्ती में कमी हो सकती है या बंद भी हो सकता है । साथ ही मीडिया सेक्टर को विज्ञापन प्राप्त करने के नए तरीके भी ढूंढने पर सकते हैं। यह बातें उन्होनें एक साक्षात्कार में कही है । इसी साक्षात्कार में उन्होनें कहा कि मीडिया के स्तर में पिछले दिनों आई गिरावट के लिए बाजार जिम्मेदार है । जो लोग मीडिया को चलाते हैं उन्हें लगता है कि एक पे्रज थ्री वाला कल्चर बनाया जाय जिससे हमें ज्यादा फायदा पहुंचेगा । ऐसाा सच है नहीं। इस तरह से लोगों की संवेदनसीलता खत्म करने की कोशिश की जा रही है । हमारे यहां माॅल संस्कृति विकसित करने की कोशिश की जा रही है जो एक अजीब तरह की संस्कृृति है । भारतीय घरों में इस का माहौल है नहीं फिर भी लाग धुलमिल गए हैं । बाजार सोचता है कि माॅल होगा तो विज्ञापन होगा और विज्ञापन होगा तो मीडिया चलेगा अतः ज्यादा दुख की बातें मीडिया में न हो जिससे लोग सहम जांए। इसलिए मीडिया के स्तर में पिछले दिनों गिरावट आई है । मीडिया का गिरावट समाज के साथ होता है । यह एक चक्र की तरह है जिसमें मीडिया समाज के साथ ही चलता है ।

इसी साक्षात्कार में महिलाओं की नाकारात्मक छवि मीडिया द्वारा पेश किए जाते रहने का सिलसिला इस वर्ष थमने से उन्होंने इन्कार कर दिया। उन्होनें कहा कि महिला को एक उपभोग की वस्तु की तरह पेश किया गया है । इसे रोकने के लिए कोई कानून लाने से कुछ नहीं होगा । इसे रोकने के लिए जनता की मानसिकता बदलना होगा । क्योंकि मीडिया जनता की भावना को ही जगह देती है । जनता बदलेगी तो मीडिया भी अवश्य बदलेगा

पूर्वोतर से जुड़े एक सवाल की जवाब में उन्होनें कहा कि पूर्वोतर एक बात है लेकिन लेकिन उसमें 7 राज्य है । हरेक राज्य की संस्कृृति अलग है । समस्या अलग है अभी तक तो मीडिया की रिपोर्टिंग बहुत खराब रहा है । इससे पूर्वोतर मुख्यधारा में शामिल नहीे हो पाएगा । ऐसे में पत्रकारों को चाहिए कि वो समस्या को पहचाने । और उसी तरह की रिपोर्टिंग करे । सभी तरह की मीडिया माघ्यमों में इस वर्ष श्रीमती गोस्वामी एफएम रेडियो को आगे देख रहीं हैं । उनका मानना है कि अखबार तो रहेगा ही लेकिन फिलहाल दो तीन वर्ष एफ एम रेडियो का धूम धडाका जमके चलेगा भविष्य की पत्रकारिता की जिम्मेदारी वह पीढी के युवा पत्रकारों के कंधे पर डालते हुए कहती हैं कि वर्ष 2009 में जो पत्रकार बनकर बाहर जाए वह थोड़ी जवाबदेही से काम करें । साथ ही यह भी ध्यान रखें कि यह न्यूज किसी के काम आएंगंे कि नहीं।

गुरुवार, जनवरी 22, 2009

श्रीलंका में लिट्टे पतन की ओर

श्रीलंका में वहां की सरकार और अलगाववादी तमिल आतंकवादी संगठन लिबरेशन टाइगर्स आॅफ तमिल ईलम यानि लिट्टे के बीच होने वाला यह चैथा युद्व है । जिसे चलते हुए 28 महीना बीत चुका है और इस लड़ाई में लिट्टे बुरी तरह से हार रहा है। लिट्टे की कथित प्रशासनिक राजधानी किलोनोच्चि पर सेना ने विगत दो जनवरी को कब्जा कर लिया है। जिससे लिट्टे संगठन की कमर पूरी तरह टूट गई है । लिट्टे सुप्रीमो वेलुपिल्लई प्रभाकरण जान बचाकर भाग रहा है । उसके सामने अब केवल दो ही विकल्प हैं आत्महत्या या श्रीलंका से पलायन । सेना को लगातार मिल रही सफलता से श्रीलंका सरकार को लग रहा है कि जल्द ही सेना का मुल्लैतिव पर कब्जा हो जाएगा । उतरी प्रांत में सेना को महती सफलता 20 नवम्बर को प्राप्त हुई थी । उस दिन सेना ने पाॅनरिन पर अधिकार कर लिया था । सेना की जीत को इसी से समझा जा सकता है कि पिछले 15 वर्ष से पाॅनरिन पर लिट्टे का कब्जा था । चतुर्थ ईलम युद्ध जुलाई 2006 में आरम्भ हुआ था। उस समय श्रीलंका का पूर्वी प्रान्त लिट्टे के प्रभाव क्षेत्र में था तथा उत्तरी प्रांत के कई जिले उनके पूर्ण नियंत्रण में था। मन्नार ,बावुनिया , किलोनोच्चि , मुलाइथिव ऐसे ही जिले थे। जाफना पायद्वीप लिट्टे के कारण सरकार व सेना की पहुंच से बाहर हो गया था 28 महीने के इस युद्ध ने यहां की तस्वीर को पूरी तरह बदल दिया है । चतुर्थ ईलम युद्ध में श्रीलंका की सेना अधिक तैयारी और दृढ़ संकल्प के साथ उतरी थी जिसके चलते लिट्टे के कड़े प्रतिरोध के बावजुद सेना ने इतनी बड़ी सफलता प्राप्त कर है। सन 1956 में सिंहलियों और तमिलों में टकराव शुरू हुआ था जो अब तक जारी है । श्रीलंका 1948 में इंगलैड से आजाद हुआ था । 1956 तक आते -आते सिंहलियों और तमिलों के बीच गहरी खाई पैदा हो गई । बहुसंख्यक सिंहलियों के द्वारा तमिलों को दूसरे दर्जे का नागरिक माना गया और उन पर अत्याचार शुरू कर दिया । 1956 के बाद श्रीलंका में कई जातीय हिंसा हुई। जिसमें तमिलों को अपनी संपति और जान गंवानी पड़ी । तमिलों के खिलाफ 1956 ,1958 ,1977 ,1981 , और 1983 में भयानक दंगे हुए जिसमें हजारों तमिल मारे गए या धायल हुए । लगातार अपमान , कुंठा , निराशा , दोयम दर्जे का नागरिक होने की शर्म तथा सरकारी बेरूखी ने अलगाववाद की आग को तेज कर दिया और 70 के दशक में अलगाववादी तमिल संगठन लिट्टे अस्तित्व में आया । श्रीलंका तमिलों के प्रति भारतीय सरकार और नागरिक ,खासकर तमिलों की गहरी सहानभुति रही है। माना तो यह जाता है कि लिट्टे का प्रारंभिक प्रशिक्षण भारतीय सेना के साथ हुआ था । भारत सरकार श्रीलंका समस्या के समाधान के लिए कई बार प्रयाास भी किया लेकिन समस्या सुलझ न सकी । लिट्टे को तमिल सहित विश्व के कई संगठन और देशों से गुपचुप सहयोग और धन मिलता रहा था । लेकिन 21 मई 1991 को हुई भारत के प्रंधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या में लिट्टे का हाथ था । इस धटना के बाद से लिट्टे के लिए भारत में भी कोई सहानभुति नहीं बची है। तमिलों पर अत्याचार पर हमेशा बोलने वाले दक्षिण की प्रमुख पार्टियों का समर्थन भी लिट्टे खो चुकी है । सिर्फ वाइको और रामदोस जैसे नेता तमिलों पर अत्याचार पर हमेशा बोलने वाले दक्षिण की प्रमुख पाटियों का समर्थन भी लिट्टे खो चुकी है । सिर्फ वाइको और रामदोस जैसे नेता तमिलों पर अत्याचार पर कुछ बोल रहे हैं। द्रमुक भी चुप्पी साधे हुए है। अमेरिका में हुए 9/11 की आतंकवादी हमले से पहले श्रीलंका में लिट्टे काफी मजबूत स्थिति में था लेकिन 9/11 के बाद हालात बदल गया । लिट्टे आतंकवादी संगठन धोषित हो गया और उसे वियतनाम , दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों, विधटित सोवियत संध के छोटे देशों और म्यांमार से हथियारों के मिलना आसान नहीं रहा । इस स्थिति का फायदा श्रीलंका ने खूब उठाया । इस स्थिति का फायदा श्रीलंका ने खूब उठाया । उसने अपने सैनिक और हथियारों की शक्ति को इस बीच में खूब बढ़ाया । इसके अलावा लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण का करीबी कमांडर करूणा का अलग होकर सरकार से मिल जाना लिट्टे के पतन का एक और प्रमुख कारण है । माना जाता है कि श्रीलंका सेना की शक्ति इतनी नहीं बढ़ गई है कि वह लिट्टे को इतनी जल्दी और तेजी से पराजित कर दे । चूंकि करूणा का सरकार से मिल जाने की वजह से श्रीलंका सेना को लिट्टे के गुप्त ठिकानों का पता चल गया है इसलिए ऐसा संभव हो रहा है । करूणा ने लिट्टे नैसेना को खड़ा किया था । वह अपने हजारों समर्थकों के साथ 2004 में लिट्टे से अलग हो गया । करूणा से मिली पक्की सूचनाओं के आधार पर सेना ने लिट्टे ठिकानों को नेस्तानाबूद करने में कामयाबी हासिल की । करूणा का अलग होना लिट्टे के लिए बड़ा आधात था श्रीलंका में सरकारी सेना अब निर्णायक लड़ाई की तरफ है । ऐसे में लिट्टे जरूर चाहता है कि पीड़ित भारत में शरण लें । शरणार्थियों की आड़ में वह अपने कुछ कैडर भी भारत भेज सकता है ताकि वे हथियारों और धन की व्यवस्था कर सकें। एक आशंका यह भी है कि पूर्ण पराजय की सूरत में प्रभाकरण अपने पत्नी और दोनों बच्चों के साथ भारत भाग जाए । हालांकि भारत में उसकी दाल गलती नजर नहीं आ रही है , लेकिन यह संभव है कि वह भारत में सक्रिय नक्सलियों से पनाह मांगे । लिट्टे ने भारतीय नक्सलियों की हथियारों से काफी मदद की है और उसी का वास्ता देकर वह नक्सलियों के प्रभाव वाले जंगलों में छुप सकता है । ऐसा भी संभव है कि प्रभाकरण इंडोनेशिया या मलेशिया भी पलायन कर सकता है । साथ ही यह भी संभावना बनती है कि लिट्टे की परंपरा के अनुसार वह आत्महत्या ही न कर लें । पंभाकरण हारी बाजी जीतने की क्षमता रखता है । लेकिन अब किसी भी तरह से श्रीलंका की स्थिति सुधरनी चाहिए । ब्रिटेन द्वारा बोए गए बांटो और राज करो की नीति को वहां की नागरिकों को अब समझना चाहिए और शांति के लिए प्रयास करने चाहिए । दुर्भाग्य से सिंहलियों और तमिल दोनों का मूल भारत ही रहा है ।

मंगलवार, जनवरी 06, 2009