मंगलवार, अप्रैल 28, 2009

अभिनेता चले नेता को जितने

चन्दन कुमार चौधरी
बिहार और झारखंड में सभी पार्टियां अभिनेताओं के सहारे चुनावी जंग जीतने की फिराक में हैं। चिलचिलाती गर्मी और नेताओं को सुनने में घटती दिलचस्पी के कारण जब भीड़ घटने लगी तो नेताओं ने नए पैंतरे अपनाने शुरू कर दिया। यही कारण है कि फिल्मी दुनिया के कई नामी-गिरामी कलाकार इन दिनों विभिन्न पार्टियों के लिए यहां चुनाव प्रचार में जुटे हुए हैं। उन्हें न तो तपती धूप की परवाह है, न ही खस्ता हाल सड़कों की। वह तो बस अपने उम्मीदवार को जिताने के जोश में लगे हुए हैं। मतदाता भी इन फिल्मी कलाकारों को अपने बीच पाकर खुश है और इन्हें देखने के लिए बड़े जोश के साथ चुनावी रैलियों ने आ रहे हैं। अपने उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार के दौरान ये फिल्मी कलाकार जमकर फिल्मी डायलाग बोल रहे हैं। और तो और मतदाताओं को लुभाने के लिए ये कलाकार स्थानीय भाषा में अपने पार्टी के पक्ष में वोट डालने की भी अपील कर रहे हैं, जिसे देखकर स्थानीय लोगों में खासा उत्साह नजर आ रहा है। यही कारण है कि बिहार और झारखंड की जनता इस चुनावी मौसम में बेटिकट ही अभिनेताओं को देखने का मजा ले रहे हैं। यहां इन दिनों निशा कोठारी, टीवी कलाकार श्वेता तिवारी, पूनम ढ़िल्लन, जीनत अमान सहित कई कलाकार विभिन्न पार्टियों के पक्ष में चुनावी सभा कर रही हैं। अभिनेत्री महिमा सिंह रांची में जहां कांग्रेस प्रत्याशी सुबोध कांत के लिए प्रचार में जुटी हुई हैं, वहीं मशहूर फिल्म अभिनेत्री कोइना मित्रा झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी की पार्टी के लिए चुनाव प्रचार कर रहीं हैं। बिहार में भी फिल्म और टीवी कलाकारों की मांग इन दिनों काफी बढ़ गई है। चुनावी मैदान में उतरे प्रत्याशी अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए इन कलाकारों का सहयोग लेना नहीं भूल रहे है। कुछ प्रत्याशी तो ऐसे हैं, जिनके घर में ही कलाकार हैं। रामविलास पासवान का बेटा चिराग पासवान और शत्रुध्न सिन्हा की बेटी सोनाक्षी अपने पिता के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं। चुनावी सभा में भीड़ खिचने वाले यह अभिनेता अपने प्रत्याशियों के पक्ष में कितना वोट ला पाएंगे, यह तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा। फिलहाल बिहार और झारखंड में चुनाव का फिल्मी शो जारी है।
चन्दन कुमार चौधरी
आम चरण के तीसरे चरण में सिक्किम में लोकसभा और राज्यविधान सभा के सभी सीटों के लिए मतदान होना है। यहां लोकसभा की एक और विधानसभा की बत्तीस सीट है। यहां मुख्य मुकाबला सत्तारुढ़ सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट और विपक्षी कांग्रेस के बीच होना है। सिक्किम में इस बार के चुनाव में पूर्व की ही तरह स्थानीय मुद्दे ही हावी है। सत्तारुढ़ सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट लगातार तीसरी बार यहां सत्ता में हैं। यह पार्टी इस बार का चुनाव लगातार चौथी बार जीत कर इतिहास रचना चाहती है। इससे पहले लगातार तीन बार सत्ता में आने का कारनामा वाम पार्टी बंगाल और त्रिपुरा, राष्टÑीय जनता दल बिहार, कांग्रेस अरु णाचल प्रदेश, भाजपा गुजरात, और सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट सिक्किम में आ चुकी है। लेकिन आजादी के साठ साल बाद भी कोई पार्टी किसी राज्य में लगातार चार बार सत्ता में नहीं आई है।पिछले बार एसडीएफ को वहां के बत्तीस विधानसभा में से इकतीस सीटों पर और राज्य की एक मात्र लोकसभा सीट पर विजय प्राप्त हुई थी। लेकिन इस बार हालात कुछ अलग है। परिसीमन के बाद 32 में 27 विधानसभा क्षेत्रों पर इसका प्रभाव पड़ा है। जिसका असर चुनाव में पड़ने की पूरी संभावना है। साथ ही इस पार्टी को सत्ता विरोधी लहर का सामना भी इस चुनाव में करना पड़ सकता है। सिर्फ इतना ही नहीं 30 अप्रैल को होने वाले चुनाव में स्थानीय मुद्दा बहुत ही हावी है। इनमें सिक्किम को आदिवासी राज्य का दर्जा देने और मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग की कथित दोहरी नागरिकता का मुद्दा प्रमुख है। जिन मुद्दों पर एसडीएफ धिरती नजर आ रही है। प्रकृति की गोद में बसे इस पर्वतीय राज्य में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमुत्री नरबहादुर भंडारी जातिगत समीकरण से लेकर स्थनीय मुद्दे पर भी एसडीएफ को इस बार कोई छुट देने के मूड में नहीं है। हालांकि पिछले चुनाव में लगभग तीन लाख मतदाताओं वाले इस राज्य में विधानसभा के लिए पड़े मतों में से 71.09 फीसदी मत एसडीएफ को मिला था। इस बार इन मतों को अपने पक्ष में रखने के लिए सत्तारुढ़ पार्टी को भारी मशक्कत करनी पड़ रही है। मतदान की तारीख नजदीक आने के साथ ही आरोप-प्रत्यारोप का दौर तेज हो चुका है। साथ ही पक्ष और विपक्ष के कार्यकर्त्ता पूरे उत्साह के साथ चुनाव प्रचार में जुटे हुए हैं। पिछले चुनाव परिणाम को देखते हुए विपक्षी पार्टियां अगर सत्तारुढ़ दल की सीट कम करने में अगर कामयाब होती है तो यही असकी बहुत बड़ी जीत मानी जाएगी।

रविवार, अप्रैल 26, 2009

गुजरात मे चुनाब

आम चुनाव के तीसरे चरण में गुजरात की स·ाी 26 संसदीय सीटों के लिए मतदान होना है। यहां पर मुख्य मुकाबला ·ााजपा और कांग्रेस के बीच है। ·ााजपा के चुनाव प्रचार की कमान राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों में है, वहीं कांग्रेस में यह जिम्मेदारी राष्टÑीय नेताओं के कंधोें पर है। वहां सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह जैसे वरिष्ठ नेताआें से लेकर स्थानीय कांग्रेस कार्यकर्ता चुनाव प्रचार में जोर-शोर से जुटे हुए हैं। इस बार गुजरात का चुनावी मुद्दा विकास है।नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में दूसरी बार विधानस·ाा चुनाव जीतने के बाद ·ाी चौदहवीं लोकस·ाा चुनाव में ·ााजपा को वहां 26 सीटों में से मात्र 14 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। मोदी इस बार के चुनाव में यहां अधिक से अधिक सीट जीतना चाहते हैं जिससे पार्टी में उनका कद ऊंचा बना रहे। आजादी के बाद से लगातार तीन बार सत्ता में आने का करिश्मा बहुत कम बार ही सं·ाव हो सका है। उसमें गुजरात ·ाी एक है जहां ·ााजपा लगातार तीन बार सत्ता में आई है।गुजरात में इस बार का चुनाव मोदी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ है। ·ााजपा का स्टार प्रचारक होने के बाद ·ाी वह गुजरात में पूरा समय दे रहे हैं। वह गुजरात में एक दिन में 7 चुनावी स·ााएं कर रहे हैं। गुजरात ·ााजपा में मोदी ही सर्वेसर्वा हैं। यहां ·ााजपा मतलब मोदी और मोदी मतलब ·ााजपा है। ऐसे में ·ााजपा की हार-जीत मोदी की हार-जीत मानी जाएगी। टिकट वितरण से लेकर हरेक महत्वपूर्ण निर्णयों में मोदी की ही चलती है। मोदी उग्र हिन्दुत्व और उग्र राष्टÑवाद से होते हुए अब विकास पुरुष के रुप में मैदान में हैं। सांप्रदायिकता की राजनीति से लेकर उन्होंने सामाजिक समीकरण तक का पूरा ख्याल रखा है। जातिगत समीकरण में गुजरात के सबसे मजबूत माने जाने वाले पटेल समुदाय अब तक ·ााजपा के साथ था लेकिन इस बार उसके जाति के उम्मीदवार के साथ जाने की सं·ाावनाएं प्रबल हैं। मतलब इस जाति के वोट ·ााजपा और कांग्रेस दोनों को मिलेंगे। वहीं कुछ समय पहले तक खुद को हिंदू नहीं मानने वाला आदिवासी समाज आज मोदी के साथ खड़ा है। मोदी खुद ·ाी ओबीसी समुदाय से आते हैं। गुजरात में नौ फीसदी मुसलमान हैं। ·ााजपा द्वारा इस बार सांप्रदायिक कार्ड नहीं खेलने से कांग्रेस ने राहत की सांस ली है। कांग्रेस को इसका डर है कि अगर वोटों का बंटवार सांप्रदायिक आधार पर होता है तो उसे ·ाारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। ऐसे में वहां चुनाव विकास के मुद्दे पर ही होना है। दूसरी तरफ कांग्रेस का दावा है कि गुजरात के विकास में केन्द्र का बहुत बड़ा योगदान है। मोदी झुठ-मूठ की वाहवाही लूट रहे हैं। मोदी के राजनीतिक ·ाविष्य के लिए गुजरात इस बार बहुत अहम है। अगर कांग्रेस ·ााजपा को पिछले चुनाव की तरह मात देती है तो मोदी का कद निश्चत तौर पर ·ााजपा में घटेगा। कांग्रेस किसी ·ाी कीमत पर इस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहेगी।

सोमवार, अप्रैल 20, 2009

तमिल मुद्दा पर राजनीती

लोक सभा चुनाव के मद्दे नजर वर्तमान समय में सभी पार्टी क्षेत्रीय और राष्टÑीय मुद्दे के ऊपर चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन देश में एक ऐसा राज्य भी है जहां पड़ोसी राष्ट्र का मुद्दा छाया हुआ है। दक्षिण का वह राज्य तमिलनाडू है जहां श्रीलंका का तमिल समस्या पर चुनावी बिसात बिछाई जा रही है।श्रीलंका के तमिल मसले पर भारत में कई वर्षों से राजनीति होती आ रही है। श्रीलंकन तमिल का मसला बहुत ही संवेदनसील मसला है। इस वजह से हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या तक हो गई थी। एलटीटीई को उनके प्रधानमंत्री रहते हुए श्रीलंका नीति पसंद नही आई। जिस वजह से 20 मई 1991 को एलटीटीई ने उनकी हत्या कर डाली तमिलनाडू में इस बार लोकसभा चुनाव की घोषणा होने से पूर्व ही यह आभास होने लगा था कि चुनाव में श्रीलंका के तमिल जरूर अहम चुनावी मुद्दा होगा। जिस तरह से श्रीलंका में एलटीटीई के पांव उखड़ते चल जा रहा है, उनकी बैचेनी का असर तमिलनाडू में लोकसभा की तैयारियों में जुटे प्रमुख राजनीतिक दलों में दिखाई पड़ रहा है। तमिलनाडू में दो गठबंधन के बीच आमने-सामने का मुकाबला होना है, जिसमें डीएमके सुप्रीमो करूणानिधि और एआईएडीएमके प्रमुख जयललिता प्रमुख सेनापति हैं जिसके नेतृत्व में लड़ाई लड़ी जानी है। इस चुनाव में रामदास की पार्टी पीएमके पांच साल सत्ता सुख भोगने के बाद फिर से जयललिता के साथ खडेÞ हैं, क्योकिं इस पार्टी को इस बार लगा कि इस चुनाव में जयललिता, करूणानिधि के मुकाबले बीस साबित हो सकती है ऐसे में हमें फायदा मिल सकता है।चुनाव घोषणा से पूर्व ही राज्य के मुख्यमंत्री करूणनिधि ने तमिल कार्ड खेला था, जिसकी वजह से के न्द्र की राजनीति में हलचल मच गई थी। करूणानिधि राज्य में बिजली कि किल्लत से जनता का ध्यान बांटने के लिए यह हथकंडा अपनाया था जिसका उपयोग वर्तमान में वंहा की सभी पार्टी करने लगा है। तमिल मुद्दा एक ऐसा मुद्दा है जो तमिलनाडू के लोगों की भावना से जुड़ा हुआ है। यही वजह है कि वाइको वहां तमिल पर ही राजनीति करते हैं। कुछ दिन पहले वाइको ने खुलेआम यह कहा था कि अगर श्रीलंका में एलटीटीई प्रमुख प्रभाकरण को कुछ हुआ तो देश में खून की नदियां बह जाएगी । वाइको का यह बयान पूरी तरह से राजनीतिक बयान है जो वहां क ी जनता को इमोशनल ब्लैकमेल कर रहा है। वाइको इस बार के चुनाव में जयललिता के साथ खड़े हैं। जयललिता खुद सदैव तमिल मसले से दूर रही है, लेकिन इस बार वो पूरी तरह से वाइक ो के साथ खड़ी दिख रही है। पिछले चुनाव में जयललिता को करारी शिकस्त खानी पड़ी थी । अत: इस बार के चुनाव में वह करू णानिधि को करारी मात देना चाहती है, जिसके वजह से वह भी इस मुद्दे पर वाइको के साथ पूरी तरह से खड़ी दिख रही है। लोकसभा की 39 सदस्यों वाली इस राज्य में जयललिता का प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब तभी पूरा हो सकता है जब क्षेत्रीय, राष्टÑीय और अन्तरराष्टÑीय मुद्दों को वह चुनाव में आजमाए।1996 के बाद से देश में गठबंधन की राजनीति जोरों पर है। केन्द्र में अब जो भी सरकार आती है वो गठबंधन की ही सरकार होती है। ऐसे में एक-एक सांसदों का महत्व बढ़ गया है। इस वजह से तमिलनाडू का केन्द्र की राजनीति में बहुत महत्व है । इस वजह से वहां की सभी पार्टी श्रीलंकन तमिल के मामले को भुना रहे हैं। अब ऐसे में वहां श्रीलंका के तमिल का मुद्दा चुनाव पर कितना प्रभाव छोड़ पाता है यह चुनाव परिणाम के बाद ही पता चलेगा

vam morcha की halat

बंगाल में वाम मोर्चा तीन दशक से सत्ता पर काबिज है। वाम पार्टियों की सबसे बड़ी ताकत बंगाल ही है। पिछले लोकसभा चुनाव में वाम पार्टियों को आजादी के बाद अब तक की सबसे बड़ी सफलता मिली थी, जिसकी वजह से वह केन्द्र में किंग मेकर की भूमिका में रही । पश्चिम बंगाल और केरल की इस पार्टी की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। यह दोनों राज्य वाम पार्टियों का गढ़ है, जहां से इस पार्टी को शक्ति मिलती है। इस बार के चुनाव में वाम पार्टियों की हालत अपने ही गढ़ में ठीक नहीं लग रहा है। जहां केरल इस बात का गवाह रहा है कि वहां प्रत्येक पांच साल पर होने वाले चुनाव में सत्ता बदल जाती है। वहीं पश्चि बंगाल में ममता बनर्जी ने वाम पाटियों की नाक में दम कर रखा है। केरल ऐसा राज्य है जहां पिछले चुनाव में वाम पार्टियों को भारी सफलता मिली थी। अपने इतिहास के मुताबिक जैसा केरल में होता आया है, इस बार भी अगर ऐसा होता है तो इस पार्टी को इस बार वंहा भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसके अलावा वहां इन पार्टियों की आन्तरिक कलह भी पार्टी को नुकसान अवश्य ही पहुचांएगी ही। वी एस अच्युतयानन्दन और पी विजयन के बीच का द्वन्द्व पार्टी के हित में कतई नहीं होगा। इसका नुकसान पार्टी को चुनाव में उठाना पड़ सकता है। दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल वाम दलों का मजबूत किला है। जहां लम्बे समय से कोई भी पार्टी सेंध नहीं लगा सकी है। इस चुनाव में वाम के इसी गढ़ में लाल झंडा की हालत ममता बनर्जी ने खराब कर रखी है। ममता बनर्जी ने जिस तरह से नंदीग्राम और सिंगूर मामले में वहां नेतृत्व किया इससे ममता वहां काफी लोकप्रिय हो गई है। ममता बनर्जी को पिछले दो सालों में वहां काफी लोकप्रियता मिली है। उसने इस चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन करके वाम दलों को कड़ी चुनौती पेश की है। ममता बनर्जी की पार्टी तृणमुल कांग्रेस शहरी वर्ग में पहले से ही लोकप्रिय थी लेकिन अब उसने शहर से बाहर गावों के मतदाताओं में भी काफी लोकप्रियता हासिल कर ली है। इसके अलावा वर्षों से वाम दलों को मिल रहे मुस्लिम मतों का भी ममता के तरफ झुकाव हुआ है। सिर्फ इतना ही नहीं बुद्धिजीवी वर्गें का कम्युनिस्ट पार्टी को वर्षों से मिल रहा समर्थन भी इस बार पहले की तरह नहीं मिल पा रहा है। इन वजहों से वाम दलों को लोकसभा चुनाव में बंगाल में परेशानी उठानी पड़ रही है।वाम दल तीसरे मोर्चा के गठन में अग्रणी भूमिका निभाने वाली पार्टी है। चुनाव परिणाम से पूर्व के अनुमान के मुताबिक वाम दलों की शक्ति में निश्चित कमी आने वाली है। ऐसी परिस्थितियों तीसरे मोर्चा का नेतृत्व करने वाला खुद कमजोर होगा तो मोर्चा की हालत का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। वाम पार्टियों ने शायद यह भांप लिया है कि वो कमजोर हो रही है ,इसलिए वो तीसरे मोर्चा के सहारे अपनी शक्ति और रजनीति को आगे बढ़ाने का प्रयाश कर रहा है।

शुक्रवार, अप्रैल 17, 2009

डेल्ही मे चुनाब

इस बार का लोकसभा चुनाव कई मायनों में पूर्व हुए चुनावों से अलग है, लेकिन दिल्ली के चुनाव में इस बार भी मुकाबला आमने -सामने का ही है। चुनाव पूर्व आए रिपोर्टों के मुताबिक इस बार केन्द्र में सरकार बनने या न बनने में सिर्फ 15-20 सीटों का ही अन्तर रहेगा। ऐसे में सभी पार्टीयां एक-एक सीट पर जी तोड़ मेहनत कर रही है। यही वजह है कि दिल्ली के सातों लोकसभा सीटों पर सभी पार्टीयां अपना पसीना बहा रही है। एक -एक सीट के वजह से ही इस बार पूर्वोतर की सभी सीटों पर हरेक पार्टी ध्यान देने से नहीं चूक रही। ऐसे में भला वो दिल्ली की सात लोकसभा सीटों पर ध्यान देने से चूक कैसे कर सकती है। हाल में हुए दिल्ली विधानसभा सभा चुनाव में कांग्रेस ने लगातार तीसरी बार सत्ता हासिल की है। कांग्रेस की इस सफलता से उसके पार्टी के नेता तक हतप्रभ रह गए थे। इससे पहले लगातार तीन बार सत्ता में बामपंथी पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा, राष्टीय जनता दल बिहार, कांग्रेस अरूणाचल प्रदेश, भारतीय जनता पार्टी गुजरात, सिक्किम डेमोकेटिक फंट सिककम में आया हुआ है। भारत की आजादी के बाद से हुए चुनाव में सत्ता पांच -दस वर्षो में बदलती रही है,लेकिन दिल्ली में कांग्रेस लगातार तीन बार सत्ता में आए तो चौंकना स्वाभाविक है। कांग्रेस की इस सफलता में शीला दीक्षीत की अहम भूमिका रही है। विपक्षी पार्टी तक कांग्रेस की इस सफलता का श्रेय शीला दीक्षीत को ही दिया। यह अलग बात है कि खुद कांग्रेस पार्टी इसका श्रेय शीला दीक्षित को देने को तैयार नहीं है और सारी वाह-वाही सोनिया गाँधी लूट के ले गई। विधान सभा में मिली सफलता के वाबजूद इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अपने को सुरक्षित नहीं महसूस कर रहीे है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि इस बार मुकाबले में शीला दीक्षित और विजय कु मार मलहोत्रा नहीं है बल्कि यह चुनाव दोनों तरफ के सक्षम प्रत्याशियों के बीच लड़ी जानी है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सात लोकसभा सीट में से छह सीट पर कांग्रेस विजय हुई थी । इस बार अगर जनता बदलाव के लिए वोटिंग करती है तो नुकसान कोंग्रेस को ही होगा और भाजपा आगे बढ़ेगी।चुनाव से कुछ दिन पहले 1984 सिख विरोधी दंगे का भूत फिर से बाहर आया है ,जिसकी वजह से कांग्रेस को अपने दो प्रत्याशी सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर को बिना लड़ाए ही मैदान से हटना पड़ा । कांग्रेस अपने प्रत्याशी को मैदान से हटा कर शायद चुनाव में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद करने लगी है। परंतु यह नहीं भूलना होगा कि गृह मंत्री पी चिदम्बरम के ऊपर एक सिख ने ही जूता फेंका गया था। इससे जाहिर होता है कि 25 साल के बाद भी इस समुदाय के अन्दर कितना आक्रोश अभी भी दबा हुआ है। दिल्ली में पंजाबी समुदाय काफी संख्या में है। जो तिमारपुर, बादली, शालीमार बाग, शकूर बस्ती, बजीर पुर, पटेल नगर, मादीपुर, राजौरी गार्डन , तिलक नगर, हरी नगर, जनक पुरी, जहांगीर पुरी, मालवीय नगर, कालका जी, विश्वास नगर, कृष्णा नगर और शहादरा में भारी संख्या में रहते हैं । यह समुदाय अगर कांग्रेस के खिलाफ गई तो कांग्रेस को इसका खामियाजा न सिर्फ दिल्ली में बल्कि पंजाब तक में देखने को मिल सकता है। शायद इसी को देखते हुए कांग्रेस ने अपने दो प्रत्याशी को हटा लिया है। चुनाव परिणाम के बाद ही यह पता लगेगा कि इसका पंजाबी समुदाय पर क्या प्रभाव पड़ा। दिल्ली में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भी बहुत सारे लोग रहते हैं जो बुराड़ी, आदर्श नगर, बजीर पुर, उत्तम नगर, द्वारका,पालम,अम्बेडकर नगर, संगम विहार, तुगलकाबाद, बदरपुर, तिलेकपुरी, कोण्डली, सीलमपुरी, गोकुलपुरी, मुस्तफाबाद और करावलनगर में रहते हैं। यह समुदाय इस बार किस तरफ वोटिंग करते हैं यह देखने वाली बात होगी । इस समुदाय को लेकर दिल्ली की राजनीति में काफी उबाल रहा है। जहां बीजेपी ने लाल बिहारी तिवारी या किसी अन्य पूर्वाचली को टिकट नहीं दिया वहीं कांग्रेस ने महाबला मिश्रा को पश्चिम दिल्ली से लोकसभा का टिकट देकर बाजी मार ली है।कहा तो यह जाता हे कि दिल्ली में जाति ,धर्म आदि के आधार पर चुनाव नहीं होता है ,परंतुयहां भी टिकट वितरण में इन सब बातों पर ध्यान दिया जाता है। यही वजह है कि दिवंगत नेता साहिब सिंह वर्मा के बेटे प्रवेश वर्मा को टिकट न दिए जाने से दिल्ली के जाट समुदाय भाजपा से बहुत ही नाराज हो गए थे । हालांकि यह अलग बात है कि प्रवेश बाद में शांत हो गए । इस बार के चुनाव में सातों सीट पर बहुजन समाज पार्टी मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने के लिए कमर कस के तैयार खड़ी है। बसपा यहां केचुनाव में किसी पार्टी को लाभ किसी को हानि अवश्य ही पहुचांती है भले ही वो खुद कोइ्र सीट न जीत पाएं।दिल्ली में सात मई को होने वाले चुनाव में इस बार कड़ा मुकाबला देखने को मिलेगा। जहां कांग्रेस विधान सभा चुनाव और पिछले लोकसभा परिणाम को दोहराना चाहेगी वहीं भाजपा विधान सभा की करारी शिकस्त को और पिछले लोकसभा चुनाव की नाकामियों को मिटाना चाहेगी।

शनिवार, अप्रैल 11, 2009

पवार कई नावों में सवार

शरद पवार कृषि मंत्री से देश के प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। इस बार उन्हें लग रहा है कि प्रधानमंत्री बनने का मौका हाथ आ सकता है। इसलिए चुनाव न लड़ने का मन बना चुके पवार फिर से मैदान में हैं, और जमकर पैंतरेबाजी कर रहे हैं। इस चुनाव में मायावती, जयललिता, लालू, मुलायम, रामविलास सहित शरद पवार भी प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखते हैं। ये सभी नेता क्षेत्रीय पार्टी के नेता हैं,जिन्हें लगता है कि अगर कांग्रेस ओर भाजपा दोनों मिलाकर 250 तक सीट नहीं ला पाएं तो ऐसे में क्षेत्रीय पार्टियों का महत्व बढ़ जाएगा। ऐसे में ये किंग मेकर राजनीतिक सौदेबाजी के तहत खुद ही किं ग बन जाना चाहते हैं ।राजीव गांधी के मृत्यू के बाद 1991 में राजनीति से लगभग सन्यास ले चुके पी.वी.नरसिंह राव देश के प्रधानमंत्री बने तो पवार बहुत ही आहत हुए थे।शरद पवार को ऐसा लग रहा था कि, पार्टी उन्हें ही प्रधानमंत्री बनाएगी लेकिन ऐसा नहींं हुआ। 1991 में शरद पवार प्रधानमंत्री तो नहीं बन पाएं लेकिन मन में प्रधानमंत्री बनने की वह इच्छा अभी तक दबी हुई है। नरसिम्हा राव के बाद कांग्रस पार्टी में अध्यक्ष पद के चुनाव में पवार को सीताराम केसरी से मात खानी पड़ी थी । जब विदेशी मूल के मामले पर वह कांग्रेस से अलग हुए तो उनके साथ पी.ए .संगमा, तारिक अनवर थे, लेकिन बाद में सत्ता का मोह पवार को फिर से कांग्रेस के साथ लाया और इनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पाटी ने कांग्रेस के साथ मिलकर महाराष्टÑ और केन्द्र तक में सरकार बनाई। पवार सत्ता से दूर नहीं रहना चाहते हैं। शरद पवार मराठा छत्रप हैं, वे 1978 में महाराष्टÑ में देश के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बनने वाले व्यक्ति थे। इनका राजनीति में बहुत ही सशक्त पदार्पण हुआ था । इस बार चुनाव की स्थिति को देखते हुए पवार ने अपना नाम पार्टी कार्यकताओं द्वारा आगे बढ़ाया। पवार यह मान रहे हैं कि इस बार के चुनाव में हालात अलग तरह का रहेगा जिसका फायदा चुनाव के बाद इन्हें प्रधानमंत्री के रूप में मिल सकता है। शरद पवार की मजबूती महाराष्ट्र है। जहां के चीनी मिलों से इन्हें शक्ति मिलती है। केन्द्र में कृषि मंत्री रहते हुए पवार ने जिस तरह अपनी शक्ति बढ़ाने और जनता के बीच में साख बनाने का काम किया है, उसका फायदा वो इस चुनाव में उठाना चाहते हैं। अभी राकपां को महाराष्ट में 9 सीटें ही है जबकि उन्हेंलगता है कि इस चुनाव में मराठी प्रधानमंत्री के नाम पर अधिक सीटें मिल सकता है । साथ ही शिवसेना का समर्थन भी उन्हें मराठी मानुष के नाम पर मिल सकता है। लेकिन शिवसेना ने अपना धोषणा पत्र जारी करते हुए कहा कि मराठी पीएम के मुद्दे पर पवार का समर्थन नहीं करूंगा। फिर भी पवार इस मुगलाते में हैं कि चुनाव के बाद महाराष्ट्रके प्रधानमत्री के नाम पर शिवसेना उनका समर्थन कर सकती है। जैसा कि उसने राष्टÑपति बनाने के लिए प्रतिभा देवी सिंह पाटिल का किया थादूसरी तरफ शरद पवार उड़ीसा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक के तरफ डोरे डाल रहे हैं। लाल झंडा भी बीजू पटनायक का समर्थन पाने को बेताब है क्योंकि माक्र्सवादी चाहते हैं कि केन्द्र में गैर भाजपा-गैर कांग्रेस सरकार बनें जिसमें इन छोटे दलों की भूमिका बहुत बड़ी होगी । ऐसे में शरद पवार को यह लगने लगा कि अगर यूपीए या, तीसरा र्मोचा सरकार बनाने के करीब रहती है और कुछ सदस्यों की जरूरत होगी तो सौदेबाजी के तहत मैं प्रधानमंत्री बन सकता हूं। ऐसा इसलिए भी संभव है क्योंकि शरद पवार का दूसरे पाटियों में इनके काफी भरोसेमंद और वफादार साथी मौजूद हैं जो पवार के नाम पर मुहर लगवाने का काम कर सकते हैं।राजनीति के माहिर खिलाड़ी शरद पवार फिलहाल यूपीए और बहुत ही गुप्त रूप से तीसरे मोर्चे के साथ हैं। चुनाव परिणाम के बाद बन रहे किसी भी परिदृश्य के लिए वे तैयार बैठे हैं। पवार को लग रहा है कि अगर इस बार प्रधानमंत्री नहीं बन पाएं तो आगे फिर कभी नहीं बन पाएंगें। ऐसे में पवार दो नावों यूपीए और तीसरे मोर्चे के साथ सवारी करना चाहते हैं। इस तरह की सवारी कभी-कभी बहुत खतरनाक भी साबित होता है।चन्दन कुमार चौधरी

चुनाब मे काला धन

चन्दन चौधरी , नई दिल्ली चुनाव के समय में टिकटों की खरीद-फरोख्त बहुत ही बढ़ जाती है। हरेक पार्टी पैसा लेकर टिकट बचती है। पिछले दिनों राजद सांसद साधू यादव ने यह आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ दिया कि,पश्चिम चंम्पारन जहां से मैं चुनाव लड़ना चाहता था उसे लोजपा ने प्रकाश झा के हाथों बेच दिया। हरेक पार्टी अपने कुछ प्रत्याशियों को टिकट बेचती है। देखा जाता है कि चुनाव के समय में बहुत सारी शक्ति सक्रिय हो जाती है।जो टिकटों की खरीद फरोख्त में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। जब कोई टिकट पाने भर के लिए कम से कम 30-40 लाख दे रहा हो। उसके सांसद बन जाने के बाद क्षेत्र का बुरा होना स्वभाविक ही है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव केबाद माग्रेट अल्वा ने खुले आम मीडिया में कहा कि चुनाव में मेरे पार्टी में टिकटोें की खरीद फरोख्त जमकर हुई । हालांकि उनके इस बयान का उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ा लेकिन वे अपनी बयान पे कायम रहीं।हाल के दिनों में मीडिया में यह खबर आई थी कि आंध्र प्रदेश में प्रजाराज्यम पार्टी के प्रमुख चिरंजीवी विधानसभा का एक टिकट 40 से 50 लाख और लोकसभा की एक टिकट ढ़ाई से तीन करोड़ में बेच रहे हैं । चिरंजीवी अपने पूरे फिल्मी जीवन में कभी भी इतना नहीं कमा सकें हैं जितना वो एक चुनाव के दौरान कमा रहे हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान साउथ के राज्यों में एक परिवार तीस से पैंतीस हजार तक कमा लेते हैं। चुनाव के दौरान अक्सर नेता और उनके कार्यकर्ता नोट बांटटे देखे जाते हैं।चुनाव के दौरान निकलने वाला यह धन वैसा रुपया होता है जिसका सरकार के पास कोई लेखा-जोखा नहीं होता है । चुनाव जीतने के लिए प्रत्याशी अपनाा काला धन प्रयोग में लाते हैं जिससे वे चुनाव जीत सके। कार्यकर्ता चुनाव के दौरान जितना खर्च दिखाते हैं, निश्चित तौर पर उनका खर्च उससे ज्यादा होता है। प्रत्याशियों के लिए चुनाव से बेहतर और कोई समय नहीं हो सकता जिसमें वो अपना काला धन बाहर निकाल सकें। विश्व अभी मंदी के दौर से गुजर रहा है, उसका असर भारत पर भी पड़ा है। चुनाव के दौरान दिखाके जितना धन खर्च होता है उससे ज्यादा छुपा क र होता है। इस धन से देश को मंदी से उबरने में कुछ मदद तो अवश्य ही मिलेगी ।

गुरुवार, अप्रैल 09, 2009

वनवास से लौटकर कहां जाएंगे ब्राह्मण

लोक सभा चुनाव की घोषणा होने के साथ ही बिहार की सभी पाटियां जाति की गोटी फिट करने में लग गयी है,क्योंकि बिहार में जाति के आधार पर चुनाव होता है। हरेक पार्टी के पास किसी न किसी जाति का वोट बैंक होता है। जहां राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू यादव माई समीकरण पर निर्भर हैं,वहीं नीतीश कुमार हम पर समीकरण पर।
इस बार बिहार में जद यू भाजपा गठबंधन से आरजेडी लोजपा गठबंधन का सीधा मुकाबला होना है । इन दोनों गठबंधन में बा्रह्मण कहीं भी वोट बैंक के रुप में नहीं है। बिहार की राजनीति में कभी ब्राह्मणों की तूती बोलती थी । यहां जग्ग्नाथ मिश्रा,भागवत झा आजाद सहित कई ब्राह्मण नेता मुख्यमंत्री रह चुके हैं। लेकिन लालू यादव के 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद यह समुदाय उपेक्षित होता चला गया। 90 के दशक में ब्राह्मणों के उपेक्षित होने में मंडल,कमंडल की राजनीति बहुत महत्वपूर्ण रही है। लालू यादव ने यहां अपनी एक ऐसी छवि बनाई जिस फल का स्वाद वो आज तक चख रहें हैं ।
बिहार में राममनोहर लोहिया के तीनों शिष्य लालू यादव,नीतीश कुमार ओर रामविलास पासवान ने बिहार को जिस वर्ग में बांट दिया उसमें बाह्मण समुदाय कहीं नहीं था । भाजपा जरुर ब्राह्मणों को साथ लेकर चल रही है लेकिन इस वर्ग का एक बड़ा समुदाय यह मान कर चल रहा है कि भाजपा नीतीश की हाथ का कठपुतली हो गई है। जिससे ब्राह्मणों का भाजपा से मोह भंग होने लगा है।
बिहार के लोकसभा चुनाव में सभी पार्टियों ने ब्राह्मण उस हिसाब से टिकट नहीं दिया है। जनता दल यू ने अपने कोटे के 25 लोक सभा सीट में से एक भी टिकट ब्राह्मणों को नहीं दिया है। जबकि भाजपा ने 15 में से सिर्फ दो टिकट ब्राह्मण को दिया है । जदयू ने 2004 के चुनाव में मात्र एक सीट ब्राह्मण क ो दिया था, जो झंझारपुर से पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा थे । उस चुनाव में वह लगभग पांच हजार मतों से चुनाव हार गए थे। इस बार के चुनाव में उस सीट से जदयू ने मिश्रा को टिकट न देकर मंगनी लाल मंडल को दे दिया है। जदयू ब्राह्मण को टिकट न दिए जाने पर कहती है कि मीडिया यह क्यों भूल जाती है कि हमने शिवानंद तिवारी को राज्यसभा में भेजा हुआ है, जबकि हमारी सहयेगी पार्टी बीजेपी ने दो टिकट ब्राह्मण को दिया ही है।
बिहार में ब्राह्मण समुदाय अपने को उपेक्षित महसूस क रने लगे हैं। ऐसे में लालू यादव ने ब्राह्मण के आगे चुग्गा फेंका है। गरीब ब्राह्मण को आरक्षण देने का चारा शायद ब्राह्मण को लुभा सकता है क्योंकि ब्राह्मण समुदाय नीतीश द्वारा पिछड़े समुदाय को सुविधा देने से डरे हुए हैं। उन्हें लगने लगा है कि लालू यादव सिर्फ ब्राहमणों के खिलाफ बयान देते थे जबकि नीतीश उनके हित के खिलाफ काम कर रहें हैं ऐसे में अगर उपेक्षित ब्राह्मण राजद के साथ चला जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। ऐसे में बिहार की राजनीति में फिर से कुछ परिवर्तन देखने को मिल सकता है।
अभी तक का हालात ऐसा है कि सभी पार्टी ब्राह्मण को साथ लाने में डर रहे हैं कि इससे कहीं बाकी जाति उनसे दूर न हो जाएं । ऐसे में ब्राह्मण विरोध से ही पैदा हुए लालू ब्राह्मण को साथ लाने का प्रयास कर रहे हैं। यह प्रयास लालू के हित में कितना रहता है यह तो चुनाव परिणाम के बाद ही पता चल पाएगा । फिलहाल लालू का यह प्रयास क्या उनके द्वारा ब्राह्मण समुदाय को दिया गया बनवास की समाप्ति साबित होगी।
चन्दन कुमार चौधरी