गुरुवार, अक्तूबर 22, 2009

बर्दाशत की हद (दुनिया मेरे आगे)

हम सभी लोग जानते हैं कि बर्दाश्त करने से अत्याचार बढता है। इसके बावजूद हमलोग बर्दाश्त करते हैं और अत्याचार को एक मूक सहमति प्रदान करते हैं। मैं दिल्ली के एक मुहल्ले में रहता हूं। कुछ दिन पहले यहां पर एक मकान मालिक ने अपने एक किराएदार को एक छोटी सी धटना पर बुरी तरह पिट दिया। मकान मालिक का मार उस किराएदार ने चुपचाप सह लिया। वह किराएदार एक छात्र था जो कमीशन की तैयारी कर रहा था। मैं पूछता हूं जो अपने लिए नहीं लड़ सकता वो दूसरे के लिए क्या लड़ेगा? अगर वो किराएदार कम से कम एक बार पुलिस को 100 नम्बर पर फोन कर देता तो निश्चित तौर पर उसका पक्ष अवश्य सुना जाता। और वह मकान मालिक इस तरह साफ बच कर नहीं सकता था। इस तरह की धटना समाज में एक-दो ही धटित होती है लेकिन इससे अत्याचार सहने की हमें आदत सी हो जाती है। अत्याचार करने वाले का मनोबल इससे बढ़ता है। आखिर इस तरह हमलोग अत्याचार को क्यों बढ़ने दे। वर्तमान समय में यह एक बड़ा सवाल है जो समाज के सामने खड़ा दिखाई दे रहा है। दूसरा सबसे बड़ा सवाल जो सामने है वो यह कि छात्र की जब पिटाई हो रही थी उस समय उसके अगल-बगल के पड़ोसी सिर्फ मूक दर्शक बने सिर्फ देख भर क्यों रहे थे। किसी ने भी उस उग्र मकान मालिक को रोकने की जहमत नहीं उठाई। अन्याय के विरोध में आवाज न उठाना और एकजूटता का अभाव हम सभी पर कभी बहुत भारी पड़ सकता है। इसी तरह बर्दाश्त करने का एक नमूना बहुत जल्दी देखने को मिला। बर्दाश्त करने का यह नमूना मुझे बस में सफर करते समय देखने को मिला। बस में एक लड़की भी सफर कर रही थी। जो खड़ी थी। इतने में एक पाकेट मार ने उसका जेब काट लिया। लड़की को अपनी जेब कटने और पाकेट मार के बारे में भी पता चल गया था। लेकिन आश्र्चय की बात यह है कि वह लड़की चुप रही। न तो उसने खुद पाकेट मार से कुछ कहा और न ही किसी सहयात्री से ही। अगले स्टाप पर जब वह पाकेट मार बस से उतर गया तब उस लड़की ने इस धटना के बारे में कुछ लोगों बताया। यह सूचना जंगल की आग की तरह पूरे बस में तुरंत ही फैल गया। सभी यात्री तरह-तरह की बातचीत करने लगे। जब मैनें उस लड़की से कहा कि पाकेट मार के बस में रहते ही उसने सबको क्यों नहीं बताया और उस पाकेट मार को पकड़ने का प्रयास क्यों नहीं किया। तो उसने साफ शब्दों में कहा कि इससे कोई फायदा नहीं होने वाला था। देखने में वो पढ़ी-लिखी किसी बड़ी कम्पनी में काम करने वाली संभ्रात लड़की दिख रही थी। लेकिन उसने जो जवाब दिया वह मुझे ठीक नहीं लगा। परिणाम क्या होता इसको अगर छोड़ भी दे तो मुझे लगता है कि उसे यूं चुप रहने की बजाय उसे एक बार पहल अवश्य करना चाहिए था। उसने बर्दाश्त यह सोच कर कैसे कर लिया कि कुछ नहीं होगा। मेरा बचपन गांव में बीता है। 2000 ईस्वी में मैनें गांव छोड़ दिया था। इससे पहले मैनें वहां बर्दाश्त सहने और न सहने के बीच एक बहुत बड़ी लड़ाई देखी है। 1998 तक वहां गरीबों पर अत्याचार होता रहा। लेकिन जब यहां का गरीब एकजूट हुआ अत्याचार के विरोध में आवाज उठाया, थाना पहुंचा, अपने अधिकार को समझा तो आज वहां का परिदृश्य कुछ और ही है। अब वहां पर अत्याचार बन्द हो गया है। अब वहां सिर्फ निवेदन और अनुनय-विनय से ही काम लिया जाता है। गांव के लोगों ने जब तक बर्दाश्त किया तब तक उन पर जुल्म होते रहे। जब उन्होंने बर्दाश्त करना बन्द कर दिया तो सभी प्रकार का अत्याचार वहां बन्द हो गया। आज अपने को शिक्षित सभ्रांत समझने वाले शहर को उस गांव से सीख लेनी चाहिए। नहीं तो हम शहरी लोगों में गलत बर्दाश्त करने की आदत पड़ जाएगी। दूसरे के लिए तो नहीं ही लड़ पाएंगे। खुद के लिए भी लड़ पाने लायक नहीं रह जाएंगें। अतः जरूरत है कि गलत को बर्दाश्त न करें उसके विरोध में आवाज उठाएं।

जनसत्ता में 17अगस्त को दुनिया मेरे आगे में प्रकाशित

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