गुरुवार, अक्तूबर 22, 2009
दिल्ली शहर की ट्रैफिक के हाल
दिल्ली शहर को विश्वस्तरीय बनाने का प्रयास लगातार हो रहा है। क्योंकि यह देश की राजधानी है। देश की राजधानी को अच्छा होना भी चाहिए। लेकिन यहां के ट्रैफिक की हालात अत्यंत ही दयनीय है। जिसे दुरूस्त किए बगैर दिल्ली को षायद विष्वस्तरीय नहीं बनाया जा सके। सड़कों पर आए दिन जाम लगती रहती है। रोड रोज की धटना धटती है और दुर्धटना होती रहती है। साथ ही और कई तरह के समस्याओं से लोगों को दो-चार होना पड़ता है। जाम का आलम यह कि आज-कल हर कोई कहीं न कहीं ट्रैफिक जाम में जरूर फंस जाता है। क्योंकि अगर सड़क पर जाम लगती है तो यह कब खत्म होगी यह कोई कहने की स्थिति में नहीं होता हैं। दिल्ली की सार्वजनिक पविहन व्यवस्था की हालात तो और भी खराब है। दिल्ली विष्वद्यिालय के उत्तरी परिसर से अगर आप षाम को गुड़गांव के लिए निकलते हैं तो आप कितने धंटे में वहां पहुचेंगं यह कहना मुष्किल है। जबकि दिल्ली से गुड़गांव की दूरी बहुत ही कम है। दिल्ली में ट्रॅफिक की यह समस्या तब है जब यहां कई फलाईओवर बना दिए गए हैं। रोज नित नई सड़कें बन रही हैं। अगर किसी व्यक्ति को बस पकड़ कर कहीं जाना है तो बस कब तक आएगा यह कोई ठीक से नहीं कह सकता है। जो बस आएगा भी उसमें आप चढ़ पाने लायक होंगें कि नहीं यह कहना बहुत ही मुष्किल है। कभी- कभी तो वह बस स्टाॅप पर रूके बगौर चली जाती है। फिर इंतजार करते रहिए आधा एक धंटा। अगली बस आने का। अगर आप बस में चढ़ भी जाते हैं तो बस में चढ़ने वाले को यह पता ही होगा कि लोगों से खचाखच भरी बस में सांस लेना भी कितना मुष्किल होता है। कई रूट तो ऐसा है जिस पर जेब तराष अति सक्रिय हैं। दिल्ली पुलिस की लापरवाही का आलम यह है कि वो जेबतराष को पकड़ने के लिए कोई खास प्रयास नहीं करती है। जिस वजह से यह जेब तराष बेखौफ होकर बसों में धुमते हैं। सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में जिस तरह से बस की हालात खराब है उसी तरह से आॅटो की स्थिति किसी प्रकार से ठीक नहीं कही जा सकती है। अगर आॅफिस के समय आप घर से निकलते हैं और सभी बसें भरी हुई आ रही है तो ऐसे में लोगों को आॅटो का ही सहारा बच जाता है। लेकिन ऐसी परिस्थिति में कभी-कभी लोगों को आॅटो नहीं भी मिलता है। संयोगवष अगर वह आपको मिल भी जाए है तो आॅटो वाला मीटर से चलने को राजी नहीं होगा। मीटर खराब है। यह उसका कहना होगा। उसके मनर्जी के अनुसार किराया दिजिए तब तो आप अपने गंतव्य तक जा सकते हैं। वरना बैठे ही रहिए बस स्टाॅप पर। आॅटो वाले के लिए हालांकि नियम बना हुआ है कि वह मीटर से ही चले लेकिन कोई भी इसका पालन नहीं करता है। आम आदमी को आॅिफस पहुंचने की जल्दी होती है। इसलिए कोई भी इसके विरोध में आवाज नहीं उठाता। ऐसा नहीं है कि आवाज उठाने वाला आदमी बिल्कुल नहीं है। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि आम आदमी द्वारा किए गए ष्किायत पर कितनी कारवाई आज तक वास्तव में हुई है। बस और आॅटो की यह हालात तब है जब दिल्ली की एक बड़ी आबादी इन्हीं सार्वजनिक परिवहन का लाभ लेते हैं। आए दिन सड़क पर कोई न कोई दुर्धटना धटती रहती है। नीजि और सार्वजनिक दोनों परिवहन ट्रैफिक नियम का ठीक से पालन नहीं करते हैं। इन नियमों को उनसे ठीक से पालन करवाना टै्रफिक वालों का दायित्व बनता है। जिससे आए दिन सड़कों पर रोड रेज की धटना और नित हो रही दुर्धटना में कमी आए। इसके लिए लोगों को टै्रफिक नियमों की जानकारी का पूर्ण प्रषिक्षण समय समय पर दिया जाना चाहिए। कई बार सड़कों पर समस्या इन जानकारियों के नहीं रहने से भी होता है। डाइवरी लाइसेंस देने में धांधली जग जाहिर है। इसलिए परिवहन लाइसेंस में दलाली को यथा षीध्र बंद करवाना चाहिए। इससे प्रषिक्षित चालक ही सड़कों पर गाड़ी चला सकंगंे जिससे सड़कों पर हो रही दुर्धटना को कमी आएगी। बड़े वाहन छोटे और पैदल यात्रियांे को कुछ नहीं समझते। जबकि उन्हें इनका सम्मान करना चाहिए। आज सड़कों पर पैदल यात्रीयों की संख्या बहुत ज्यादा है। अक्सर जल्दीबाजी और कई वजहों से पैदल और छोटे वाहनों के अधिकारांे का हनन होता है। दिल्ली यातायात पुलिस इन लोगों के अधिकार के लिए समय समय पर जो प्रयास करता हैं वो सराहनीय हैं। लेकिन अभी इस में सुधार की काफी गुंजाइष बाकी है। आजकल आम जनता भी अपनी बिजली पानी की समस्या के लिए सड़क जाम करते हैं। यह ट्रैफिक समस्या को और बढ़ाने का काम करता है। आम आदमी द्वारा सड़क जाम करना कहां तक जायज-नाजायज है यह तो कहा नहीं जा सकता लेकिन ऐसे में सड़क पर चल रहे लोगों की दिक्कतें अवष्य बढ़ जाती है। अगर कोई ऐसा उपाय ढूंढ़ा जा सके जिससे सड़क जाम होने की नौबत न आए तो बेहतर होगा। रोज सड़क पर कई नई गाड़ियां षामिल हो रही है। ऐसे कार वाले यहां ज्यादा हैं जो अकेला ही यात्रा करते हैं। उनकी गाड़ी सड़क का बहुत बड़ा हिस्सा लेती है। जिससे सड़क पर भीड़ बढ़ रहा है। ऐसे में सड़क का छोटा पड़ जाना स्वाभाविक ही है। दिल्ली में कारों की संख्या बहुत है। अगर कार वालों को अच्छा सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था उपल्बध कराया जाय तो निष्चित तौर पर बहुत सारे लोग कार छोड़ देंगें और सार्वजनिक परिवहन में यात्रा करने लगेंगे। इससे यातायात की बहुत सारी समस्या का स्वतः हल हो जाएगा। इसके अलावा दिल्ली में कई ऐसी सड़कें हैं जहां अभी भी अतिक्रमण है। सड़क के किनारे पटरी लगाई जाती है। सरकारी तंत्र अगर सिर्फ मूक दर्षक नहीं रहे और इन अतिक्रमणों को हटा दे ंतो सड़क पर गाड़ियों की चाल में अवष्य र्फक देखने को मिल सकता है। षहर में मेट्रो के आने से लोगों को थोड़ी राहत तो जरूर मिल जाएगी। लेकिन परिवहन व्यवस्था को सुधारने का दूसरा प्रयास भी जारी रहना चाहिए। जिससे लोग समय पर सुरक्षित अपने घरों को लौट सके। दिल्ली को अगर विष्वस्तरीय षहर बनाना है तो निष्चित तौर पर सबसे पहले यहां की परिवहन व्यवस्था में सुधार लाना होगा। खासकर सार्वजनिक परिवहन में। सरकार के परिवहन विभाग से इतनी सुधार की उम्मीद तो हरेक नागरिक करता ही है। अब इस उम्मीद पर खरा उतरना सरकार का काम है।
बर्दाशत की हद (दुनिया मेरे आगे)
हम सभी लोग जानते हैं कि बर्दाश्त करने से अत्याचार बढता है। इसके बावजूद हमलोग बर्दाश्त करते हैं और अत्याचार को एक मूक सहमति प्रदान करते हैं। मैं दिल्ली के एक मुहल्ले में रहता हूं। कुछ दिन पहले यहां पर एक मकान मालिक ने अपने एक किराएदार को एक छोटी सी धटना पर बुरी तरह पिट दिया। मकान मालिक का मार उस किराएदार ने चुपचाप सह लिया। वह किराएदार एक छात्र था जो कमीशन की तैयारी कर रहा था। मैं पूछता हूं जो अपने लिए नहीं लड़ सकता वो दूसरे के लिए क्या लड़ेगा? अगर वो किराएदार कम से कम एक बार पुलिस को 100 नम्बर पर फोन कर देता तो निश्चित तौर पर उसका पक्ष अवश्य सुना जाता। और वह मकान मालिक इस तरह साफ बच कर नहीं सकता था। इस तरह की धटना समाज में एक-दो ही धटित होती है लेकिन इससे अत्याचार सहने की हमें आदत सी हो जाती है। अत्याचार करने वाले का मनोबल इससे बढ़ता है। आखिर इस तरह हमलोग अत्याचार को क्यों बढ़ने दे। वर्तमान समय में यह एक बड़ा सवाल है जो समाज के सामने खड़ा दिखाई दे रहा है। दूसरा सबसे बड़ा सवाल जो सामने है वो यह कि छात्र की जब पिटाई हो रही थी उस समय उसके अगल-बगल के पड़ोसी सिर्फ मूक दर्शक बने सिर्फ देख भर क्यों रहे थे। किसी ने भी उस उग्र मकान मालिक को रोकने की जहमत नहीं उठाई। अन्याय के विरोध में आवाज न उठाना और एकजूटता का अभाव हम सभी पर कभी बहुत भारी पड़ सकता है। इसी तरह बर्दाश्त करने का एक नमूना बहुत जल्दी देखने को मिला। बर्दाश्त करने का यह नमूना मुझे बस में सफर करते समय देखने को मिला। बस में एक लड़की भी सफर कर रही थी। जो खड़ी थी। इतने में एक पाकेट मार ने उसका जेब काट लिया। लड़की को अपनी जेब कटने और पाकेट मार के बारे में भी पता चल गया था। लेकिन आश्र्चय की बात यह है कि वह लड़की चुप रही। न तो उसने खुद पाकेट मार से कुछ कहा और न ही किसी सहयात्री से ही। अगले स्टाप पर जब वह पाकेट मार बस से उतर गया तब उस लड़की ने इस धटना के बारे में कुछ लोगों बताया। यह सूचना जंगल की आग की तरह पूरे बस में तुरंत ही फैल गया। सभी यात्री तरह-तरह की बातचीत करने लगे। जब मैनें उस लड़की से कहा कि पाकेट मार के बस में रहते ही उसने सबको क्यों नहीं बताया और उस पाकेट मार को पकड़ने का प्रयास क्यों नहीं किया। तो उसने साफ शब्दों में कहा कि इससे कोई फायदा नहीं होने वाला था। देखने में वो पढ़ी-लिखी किसी बड़ी कम्पनी में काम करने वाली संभ्रात लड़की दिख रही थी। लेकिन उसने जो जवाब दिया वह मुझे ठीक नहीं लगा। परिणाम क्या होता इसको अगर छोड़ भी दे तो मुझे लगता है कि उसे यूं चुप रहने की बजाय उसे एक बार पहल अवश्य करना चाहिए था। उसने बर्दाश्त यह सोच कर कैसे कर लिया कि कुछ नहीं होगा। मेरा बचपन गांव में बीता है। 2000 ईस्वी में मैनें गांव छोड़ दिया था। इससे पहले मैनें वहां बर्दाश्त सहने और न सहने के बीच एक बहुत बड़ी लड़ाई देखी है। 1998 तक वहां गरीबों पर अत्याचार होता रहा। लेकिन जब यहां का गरीब एकजूट हुआ अत्याचार के विरोध में आवाज उठाया, थाना पहुंचा, अपने अधिकार को समझा तो आज वहां का परिदृश्य कुछ और ही है। अब वहां पर अत्याचार बन्द हो गया है। अब वहां सिर्फ निवेदन और अनुनय-विनय से ही काम लिया जाता है। गांव के लोगों ने जब तक बर्दाश्त किया तब तक उन पर जुल्म होते रहे। जब उन्होंने बर्दाश्त करना बन्द कर दिया तो सभी प्रकार का अत्याचार वहां बन्द हो गया। आज अपने को शिक्षित सभ्रांत समझने वाले शहर को उस गांव से सीख लेनी चाहिए। नहीं तो हम शहरी लोगों में गलत बर्दाश्त करने की आदत पड़ जाएगी। दूसरे के लिए तो नहीं ही लड़ पाएंगे। खुद के लिए भी लड़ पाने लायक नहीं रह जाएंगें। अतः जरूरत है कि गलत को बर्दाश्त न करें उसके विरोध में आवाज उठाएं।
जनसत्ता में 17अगस्त को दुनिया मेरे आगे में प्रकाशित
जनसत्ता में 17अगस्त को दुनिया मेरे आगे में प्रकाशित
मंगलवार, अप्रैल 28, 2009
अभिनेता चले नेता को जितने
चन्दन कुमार चौधरी
बिहार और झारखंड में सभी पार्टियां अभिनेताओं के सहारे चुनावी जंग जीतने की फिराक में हैं। चिलचिलाती गर्मी और नेताओं को सुनने में घटती दिलचस्पी के कारण जब भीड़ घटने लगी तो नेताओं ने नए पैंतरे अपनाने शुरू कर दिया। यही कारण है कि फिल्मी दुनिया के कई नामी-गिरामी कलाकार इन दिनों विभिन्न पार्टियों के लिए यहां चुनाव प्रचार में जुटे हुए हैं। उन्हें न तो तपती धूप की परवाह है, न ही खस्ता हाल सड़कों की। वह तो बस अपने उम्मीदवार को जिताने के जोश में लगे हुए हैं। मतदाता भी इन फिल्मी कलाकारों को अपने बीच पाकर खुश है और इन्हें देखने के लिए बड़े जोश के साथ चुनावी रैलियों ने आ रहे हैं। अपने उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार के दौरान ये फिल्मी कलाकार जमकर फिल्मी डायलाग बोल रहे हैं। और तो और मतदाताओं को लुभाने के लिए ये कलाकार स्थानीय भाषा में अपने पार्टी के पक्ष में वोट डालने की भी अपील कर रहे हैं, जिसे देखकर स्थानीय लोगों में खासा उत्साह नजर आ रहा है। यही कारण है कि बिहार और झारखंड की जनता इस चुनावी मौसम में बेटिकट ही अभिनेताओं को देखने का मजा ले रहे हैं। यहां इन दिनों निशा कोठारी, टीवी कलाकार श्वेता तिवारी, पूनम ढ़िल्लन, जीनत अमान सहित कई कलाकार विभिन्न पार्टियों के पक्ष में चुनावी सभा कर रही हैं। अभिनेत्री महिमा सिंह रांची में जहां कांग्रेस प्रत्याशी सुबोध कांत के लिए प्रचार में जुटी हुई हैं, वहीं मशहूर फिल्म अभिनेत्री कोइना मित्रा झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी की पार्टी के लिए चुनाव प्रचार कर रहीं हैं। बिहार में भी फिल्म और टीवी कलाकारों की मांग इन दिनों काफी बढ़ गई है। चुनावी मैदान में उतरे प्रत्याशी अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए इन कलाकारों का सहयोग लेना नहीं भूल रहे है। कुछ प्रत्याशी तो ऐसे हैं, जिनके घर में ही कलाकार हैं। रामविलास पासवान का बेटा चिराग पासवान और शत्रुध्न सिन्हा की बेटी सोनाक्षी अपने पिता के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं। चुनावी सभा में भीड़ खिचने वाले यह अभिनेता अपने प्रत्याशियों के पक्ष में कितना वोट ला पाएंगे, यह तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा। फिलहाल बिहार और झारखंड में चुनाव का फिल्मी शो जारी है।
बिहार और झारखंड में सभी पार्टियां अभिनेताओं के सहारे चुनावी जंग जीतने की फिराक में हैं। चिलचिलाती गर्मी और नेताओं को सुनने में घटती दिलचस्पी के कारण जब भीड़ घटने लगी तो नेताओं ने नए पैंतरे अपनाने शुरू कर दिया। यही कारण है कि फिल्मी दुनिया के कई नामी-गिरामी कलाकार इन दिनों विभिन्न पार्टियों के लिए यहां चुनाव प्रचार में जुटे हुए हैं। उन्हें न तो तपती धूप की परवाह है, न ही खस्ता हाल सड़कों की। वह तो बस अपने उम्मीदवार को जिताने के जोश में लगे हुए हैं। मतदाता भी इन फिल्मी कलाकारों को अपने बीच पाकर खुश है और इन्हें देखने के लिए बड़े जोश के साथ चुनावी रैलियों ने आ रहे हैं। अपने उम्मीदवार के पक्ष में प्रचार के दौरान ये फिल्मी कलाकार जमकर फिल्मी डायलाग बोल रहे हैं। और तो और मतदाताओं को लुभाने के लिए ये कलाकार स्थानीय भाषा में अपने पार्टी के पक्ष में वोट डालने की भी अपील कर रहे हैं, जिसे देखकर स्थानीय लोगों में खासा उत्साह नजर आ रहा है। यही कारण है कि बिहार और झारखंड की जनता इस चुनावी मौसम में बेटिकट ही अभिनेताओं को देखने का मजा ले रहे हैं। यहां इन दिनों निशा कोठारी, टीवी कलाकार श्वेता तिवारी, पूनम ढ़िल्लन, जीनत अमान सहित कई कलाकार विभिन्न पार्टियों के पक्ष में चुनावी सभा कर रही हैं। अभिनेत्री महिमा सिंह रांची में जहां कांग्रेस प्रत्याशी सुबोध कांत के लिए प्रचार में जुटी हुई हैं, वहीं मशहूर फिल्म अभिनेत्री कोइना मित्रा झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी की पार्टी के लिए चुनाव प्रचार कर रहीं हैं। बिहार में भी फिल्म और टीवी कलाकारों की मांग इन दिनों काफी बढ़ गई है। चुनावी मैदान में उतरे प्रत्याशी अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए इन कलाकारों का सहयोग लेना नहीं भूल रहे है। कुछ प्रत्याशी तो ऐसे हैं, जिनके घर में ही कलाकार हैं। रामविलास पासवान का बेटा चिराग पासवान और शत्रुध्न सिन्हा की बेटी सोनाक्षी अपने पिता के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं। चुनावी सभा में भीड़ खिचने वाले यह अभिनेता अपने प्रत्याशियों के पक्ष में कितना वोट ला पाएंगे, यह तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा। फिलहाल बिहार और झारखंड में चुनाव का फिल्मी शो जारी है।
चन्दन कुमार चौधरी
आम चरण के तीसरे चरण में सिक्किम में लोकसभा और राज्यविधान सभा के सभी सीटों के लिए मतदान होना है। यहां लोकसभा की एक और विधानसभा की बत्तीस सीट है। यहां मुख्य मुकाबला सत्तारुढ़ सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट और विपक्षी कांग्रेस के बीच होना है। सिक्किम में इस बार के चुनाव में पूर्व की ही तरह स्थानीय मुद्दे ही हावी है। सत्तारुढ़ सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट लगातार तीसरी बार यहां सत्ता में हैं। यह पार्टी इस बार का चुनाव लगातार चौथी बार जीत कर इतिहास रचना चाहती है। इससे पहले लगातार तीन बार सत्ता में आने का कारनामा वाम पार्टी बंगाल और त्रिपुरा, राष्टÑीय जनता दल बिहार, कांग्रेस अरु णाचल प्रदेश, भाजपा गुजरात, और सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट सिक्किम में आ चुकी है। लेकिन आजादी के साठ साल बाद भी कोई पार्टी किसी राज्य में लगातार चार बार सत्ता में नहीं आई है।पिछले बार एसडीएफ को वहां के बत्तीस विधानसभा में से इकतीस सीटों पर और राज्य की एक मात्र लोकसभा सीट पर विजय प्राप्त हुई थी। लेकिन इस बार हालात कुछ अलग है। परिसीमन के बाद 32 में 27 विधानसभा क्षेत्रों पर इसका प्रभाव पड़ा है। जिसका असर चुनाव में पड़ने की पूरी संभावना है। साथ ही इस पार्टी को सत्ता विरोधी लहर का सामना भी इस चुनाव में करना पड़ सकता है। सिर्फ इतना ही नहीं 30 अप्रैल को होने वाले चुनाव में स्थानीय मुद्दा बहुत ही हावी है। इनमें सिक्किम को आदिवासी राज्य का दर्जा देने और मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग की कथित दोहरी नागरिकता का मुद्दा प्रमुख है। जिन मुद्दों पर एसडीएफ धिरती नजर आ रही है। प्रकृति की गोद में बसे इस पर्वतीय राज्य में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमुत्री नरबहादुर भंडारी जातिगत समीकरण से लेकर स्थनीय मुद्दे पर भी एसडीएफ को इस बार कोई छुट देने के मूड में नहीं है। हालांकि पिछले चुनाव में लगभग तीन लाख मतदाताओं वाले इस राज्य में विधानसभा के लिए पड़े मतों में से 71.09 फीसदी मत एसडीएफ को मिला था। इस बार इन मतों को अपने पक्ष में रखने के लिए सत्तारुढ़ पार्टी को भारी मशक्कत करनी पड़ रही है। मतदान की तारीख नजदीक आने के साथ ही आरोप-प्रत्यारोप का दौर तेज हो चुका है। साथ ही पक्ष और विपक्ष के कार्यकर्त्ता पूरे उत्साह के साथ चुनाव प्रचार में जुटे हुए हैं। पिछले चुनाव परिणाम को देखते हुए विपक्षी पार्टियां अगर सत्तारुढ़ दल की सीट कम करने में अगर कामयाब होती है तो यही असकी बहुत बड़ी जीत मानी जाएगी।
आम चरण के तीसरे चरण में सिक्किम में लोकसभा और राज्यविधान सभा के सभी सीटों के लिए मतदान होना है। यहां लोकसभा की एक और विधानसभा की बत्तीस सीट है। यहां मुख्य मुकाबला सत्तारुढ़ सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट और विपक्षी कांग्रेस के बीच होना है। सिक्किम में इस बार के चुनाव में पूर्व की ही तरह स्थानीय मुद्दे ही हावी है। सत्तारुढ़ सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट लगातार तीसरी बार यहां सत्ता में हैं। यह पार्टी इस बार का चुनाव लगातार चौथी बार जीत कर इतिहास रचना चाहती है। इससे पहले लगातार तीन बार सत्ता में आने का कारनामा वाम पार्टी बंगाल और त्रिपुरा, राष्टÑीय जनता दल बिहार, कांग्रेस अरु णाचल प्रदेश, भाजपा गुजरात, और सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट सिक्किम में आ चुकी है। लेकिन आजादी के साठ साल बाद भी कोई पार्टी किसी राज्य में लगातार चार बार सत्ता में नहीं आई है।पिछले बार एसडीएफ को वहां के बत्तीस विधानसभा में से इकतीस सीटों पर और राज्य की एक मात्र लोकसभा सीट पर विजय प्राप्त हुई थी। लेकिन इस बार हालात कुछ अलग है। परिसीमन के बाद 32 में 27 विधानसभा क्षेत्रों पर इसका प्रभाव पड़ा है। जिसका असर चुनाव में पड़ने की पूरी संभावना है। साथ ही इस पार्टी को सत्ता विरोधी लहर का सामना भी इस चुनाव में करना पड़ सकता है। सिर्फ इतना ही नहीं 30 अप्रैल को होने वाले चुनाव में स्थानीय मुद्दा बहुत ही हावी है। इनमें सिक्किम को आदिवासी राज्य का दर्जा देने और मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग की कथित दोहरी नागरिकता का मुद्दा प्रमुख है। जिन मुद्दों पर एसडीएफ धिरती नजर आ रही है। प्रकृति की गोद में बसे इस पर्वतीय राज्य में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमुत्री नरबहादुर भंडारी जातिगत समीकरण से लेकर स्थनीय मुद्दे पर भी एसडीएफ को इस बार कोई छुट देने के मूड में नहीं है। हालांकि पिछले चुनाव में लगभग तीन लाख मतदाताओं वाले इस राज्य में विधानसभा के लिए पड़े मतों में से 71.09 फीसदी मत एसडीएफ को मिला था। इस बार इन मतों को अपने पक्ष में रखने के लिए सत्तारुढ़ पार्टी को भारी मशक्कत करनी पड़ रही है। मतदान की तारीख नजदीक आने के साथ ही आरोप-प्रत्यारोप का दौर तेज हो चुका है। साथ ही पक्ष और विपक्ष के कार्यकर्त्ता पूरे उत्साह के साथ चुनाव प्रचार में जुटे हुए हैं। पिछले चुनाव परिणाम को देखते हुए विपक्षी पार्टियां अगर सत्तारुढ़ दल की सीट कम करने में अगर कामयाब होती है तो यही असकी बहुत बड़ी जीत मानी जाएगी।
रविवार, अप्रैल 26, 2009
गुजरात मे चुनाब
आम चुनाव के तीसरे चरण में गुजरात की स·ाी 26 संसदीय सीटों के लिए मतदान होना है। यहां पर मुख्य मुकाबला ·ााजपा और कांग्रेस के बीच है। ·ााजपा के चुनाव प्रचार की कमान राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों में है, वहीं कांग्रेस में यह जिम्मेदारी राष्टÑीय नेताओं के कंधोें पर है। वहां सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह जैसे वरिष्ठ नेताआें से लेकर स्थानीय कांग्रेस कार्यकर्ता चुनाव प्रचार में जोर-शोर से जुटे हुए हैं। इस बार गुजरात का चुनावी मुद्दा विकास है।नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में दूसरी बार विधानस·ाा चुनाव जीतने के बाद ·ाी चौदहवीं लोकस·ाा चुनाव में ·ााजपा को वहां 26 सीटों में से मात्र 14 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। मोदी इस बार के चुनाव में यहां अधिक से अधिक सीट जीतना चाहते हैं जिससे पार्टी में उनका कद ऊंचा बना रहे। आजादी के बाद से लगातार तीन बार सत्ता में आने का करिश्मा बहुत कम बार ही सं·ाव हो सका है। उसमें गुजरात ·ाी एक है जहां ·ााजपा लगातार तीन बार सत्ता में आई है।गुजरात में इस बार का चुनाव मोदी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ है। ·ााजपा का स्टार प्रचारक होने के बाद ·ाी वह गुजरात में पूरा समय दे रहे हैं। वह गुजरात में एक दिन में 7 चुनावी स·ााएं कर रहे हैं। गुजरात ·ााजपा में मोदी ही सर्वेसर्वा हैं। यहां ·ााजपा मतलब मोदी और मोदी मतलब ·ााजपा है। ऐसे में ·ााजपा की हार-जीत मोदी की हार-जीत मानी जाएगी। टिकट वितरण से लेकर हरेक महत्वपूर्ण निर्णयों में मोदी की ही चलती है। मोदी उग्र हिन्दुत्व और उग्र राष्टÑवाद से होते हुए अब विकास पुरुष के रुप में मैदान में हैं। सांप्रदायिकता की राजनीति से लेकर उन्होंने सामाजिक समीकरण तक का पूरा ख्याल रखा है। जातिगत समीकरण में गुजरात के सबसे मजबूत माने जाने वाले पटेल समुदाय अब तक ·ााजपा के साथ था लेकिन इस बार उसके जाति के उम्मीदवार के साथ जाने की सं·ाावनाएं प्रबल हैं। मतलब इस जाति के वोट ·ााजपा और कांग्रेस दोनों को मिलेंगे। वहीं कुछ समय पहले तक खुद को हिंदू नहीं मानने वाला आदिवासी समाज आज मोदी के साथ खड़ा है। मोदी खुद ·ाी ओबीसी समुदाय से आते हैं। गुजरात में नौ फीसदी मुसलमान हैं। ·ााजपा द्वारा इस बार सांप्रदायिक कार्ड नहीं खेलने से कांग्रेस ने राहत की सांस ली है। कांग्रेस को इसका डर है कि अगर वोटों का बंटवार सांप्रदायिक आधार पर होता है तो उसे ·ाारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। ऐसे में वहां चुनाव विकास के मुद्दे पर ही होना है। दूसरी तरफ कांग्रेस का दावा है कि गुजरात के विकास में केन्द्र का बहुत बड़ा योगदान है। मोदी झुठ-मूठ की वाहवाही लूट रहे हैं। मोदी के राजनीतिक ·ाविष्य के लिए गुजरात इस बार बहुत अहम है। अगर कांग्रेस ·ााजपा को पिछले चुनाव की तरह मात देती है तो मोदी का कद निश्चत तौर पर ·ााजपा में घटेगा। कांग्रेस किसी ·ाी कीमत पर इस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहेगी।
सोमवार, अप्रैल 20, 2009
तमिल मुद्दा पर राजनीती
लोक सभा चुनाव के मद्दे नजर वर्तमान समय में सभी पार्टी क्षेत्रीय और राष्टÑीय मुद्दे के ऊपर चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन देश में एक ऐसा राज्य भी है जहां पड़ोसी राष्ट्र का मुद्दा छाया हुआ है। दक्षिण का वह राज्य तमिलनाडू है जहां श्रीलंका का तमिल समस्या पर चुनावी बिसात बिछाई जा रही है।श्रीलंका के तमिल मसले पर भारत में कई वर्षों से राजनीति होती आ रही है। श्रीलंकन तमिल का मसला बहुत ही संवेदनसील मसला है। इस वजह से हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या तक हो गई थी। एलटीटीई को उनके प्रधानमंत्री रहते हुए श्रीलंका नीति पसंद नही आई। जिस वजह से 20 मई 1991 को एलटीटीई ने उनकी हत्या कर डाली तमिलनाडू में इस बार लोकसभा चुनाव की घोषणा होने से पूर्व ही यह आभास होने लगा था कि चुनाव में श्रीलंका के तमिल जरूर अहम चुनावी मुद्दा होगा। जिस तरह से श्रीलंका में एलटीटीई के पांव उखड़ते चल जा रहा है, उनकी बैचेनी का असर तमिलनाडू में लोकसभा की तैयारियों में जुटे प्रमुख राजनीतिक दलों में दिखाई पड़ रहा है। तमिलनाडू में दो गठबंधन के बीच आमने-सामने का मुकाबला होना है, जिसमें डीएमके सुप्रीमो करूणानिधि और एआईएडीएमके प्रमुख जयललिता प्रमुख सेनापति हैं जिसके नेतृत्व में लड़ाई लड़ी जानी है। इस चुनाव में रामदास की पार्टी पीएमके पांच साल सत्ता सुख भोगने के बाद फिर से जयललिता के साथ खडेÞ हैं, क्योकिं इस पार्टी को इस बार लगा कि इस चुनाव में जयललिता, करूणानिधि के मुकाबले बीस साबित हो सकती है ऐसे में हमें फायदा मिल सकता है।चुनाव घोषणा से पूर्व ही राज्य के मुख्यमंत्री करूणनिधि ने तमिल कार्ड खेला था, जिसकी वजह से के न्द्र की राजनीति में हलचल मच गई थी। करूणानिधि राज्य में बिजली कि किल्लत से जनता का ध्यान बांटने के लिए यह हथकंडा अपनाया था जिसका उपयोग वर्तमान में वंहा की सभी पार्टी करने लगा है। तमिल मुद्दा एक ऐसा मुद्दा है जो तमिलनाडू के लोगों की भावना से जुड़ा हुआ है। यही वजह है कि वाइको वहां तमिल पर ही राजनीति करते हैं। कुछ दिन पहले वाइको ने खुलेआम यह कहा था कि अगर श्रीलंका में एलटीटीई प्रमुख प्रभाकरण को कुछ हुआ तो देश में खून की नदियां बह जाएगी । वाइको का यह बयान पूरी तरह से राजनीतिक बयान है जो वहां क ी जनता को इमोशनल ब्लैकमेल कर रहा है। वाइको इस बार के चुनाव में जयललिता के साथ खड़े हैं। जयललिता खुद सदैव तमिल मसले से दूर रही है, लेकिन इस बार वो पूरी तरह से वाइक ो के साथ खड़ी दिख रही है। पिछले चुनाव में जयललिता को करारी शिकस्त खानी पड़ी थी । अत: इस बार के चुनाव में वह करू णानिधि को करारी मात देना चाहती है, जिसके वजह से वह भी इस मुद्दे पर वाइको के साथ पूरी तरह से खड़ी दिख रही है। लोकसभा की 39 सदस्यों वाली इस राज्य में जयललिता का प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब तभी पूरा हो सकता है जब क्षेत्रीय, राष्टÑीय और अन्तरराष्टÑीय मुद्दों को वह चुनाव में आजमाए।1996 के बाद से देश में गठबंधन की राजनीति जोरों पर है। केन्द्र में अब जो भी सरकार आती है वो गठबंधन की ही सरकार होती है। ऐसे में एक-एक सांसदों का महत्व बढ़ गया है। इस वजह से तमिलनाडू का केन्द्र की राजनीति में बहुत महत्व है । इस वजह से वहां की सभी पार्टी श्रीलंकन तमिल के मामले को भुना रहे हैं। अब ऐसे में वहां श्रीलंका के तमिल का मुद्दा चुनाव पर कितना प्रभाव छोड़ पाता है यह चुनाव परिणाम के बाद ही पता चलेगा
vam morcha की halat
बंगाल में वाम मोर्चा तीन दशक से सत्ता पर काबिज है। वाम पार्टियों की सबसे बड़ी ताकत बंगाल ही है। पिछले लोकसभा चुनाव में वाम पार्टियों को आजादी के बाद अब तक की सबसे बड़ी सफलता मिली थी, जिसकी वजह से वह केन्द्र में किंग मेकर की भूमिका में रही । पश्चिम बंगाल और केरल की इस पार्टी की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। यह दोनों राज्य वाम पार्टियों का गढ़ है, जहां से इस पार्टी को शक्ति मिलती है। इस बार के चुनाव में वाम पार्टियों की हालत अपने ही गढ़ में ठीक नहीं लग रहा है। जहां केरल इस बात का गवाह रहा है कि वहां प्रत्येक पांच साल पर होने वाले चुनाव में सत्ता बदल जाती है। वहीं पश्चि बंगाल में ममता बनर्जी ने वाम पाटियों की नाक में दम कर रखा है। केरल ऐसा राज्य है जहां पिछले चुनाव में वाम पार्टियों को भारी सफलता मिली थी। अपने इतिहास के मुताबिक जैसा केरल में होता आया है, इस बार भी अगर ऐसा होता है तो इस पार्टी को इस बार वंहा भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसके अलावा वहां इन पार्टियों की आन्तरिक कलह भी पार्टी को नुकसान अवश्य ही पहुचांएगी ही। वी एस अच्युतयानन्दन और पी विजयन के बीच का द्वन्द्व पार्टी के हित में कतई नहीं होगा। इसका नुकसान पार्टी को चुनाव में उठाना पड़ सकता है। दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल वाम दलों का मजबूत किला है। जहां लम्बे समय से कोई भी पार्टी सेंध नहीं लगा सकी है। इस चुनाव में वाम के इसी गढ़ में लाल झंडा की हालत ममता बनर्जी ने खराब कर रखी है। ममता बनर्जी ने जिस तरह से नंदीग्राम और सिंगूर मामले में वहां नेतृत्व किया इससे ममता वहां काफी लोकप्रिय हो गई है। ममता बनर्जी को पिछले दो सालों में वहां काफी लोकप्रियता मिली है। उसने इस चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन करके वाम दलों को कड़ी चुनौती पेश की है। ममता बनर्जी की पार्टी तृणमुल कांग्रेस शहरी वर्ग में पहले से ही लोकप्रिय थी लेकिन अब उसने शहर से बाहर गावों के मतदाताओं में भी काफी लोकप्रियता हासिल कर ली है। इसके अलावा वर्षों से वाम दलों को मिल रहे मुस्लिम मतों का भी ममता के तरफ झुकाव हुआ है। सिर्फ इतना ही नहीं बुद्धिजीवी वर्गें का कम्युनिस्ट पार्टी को वर्षों से मिल रहा समर्थन भी इस बार पहले की तरह नहीं मिल पा रहा है। इन वजहों से वाम दलों को लोकसभा चुनाव में बंगाल में परेशानी उठानी पड़ रही है।वाम दल तीसरे मोर्चा के गठन में अग्रणी भूमिका निभाने वाली पार्टी है। चुनाव परिणाम से पूर्व के अनुमान के मुताबिक वाम दलों की शक्ति में निश्चित कमी आने वाली है। ऐसी परिस्थितियों तीसरे मोर्चा का नेतृत्व करने वाला खुद कमजोर होगा तो मोर्चा की हालत का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। वाम पार्टियों ने शायद यह भांप लिया है कि वो कमजोर हो रही है ,इसलिए वो तीसरे मोर्चा के सहारे अपनी शक्ति और रजनीति को आगे बढ़ाने का प्रयाश कर रहा है।
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