बुधवार, मार्च 04, 2009

अपना विचार।

1986 में शुरू हुआ शुरू हुआ सूरज कुंड मेला अपनी लोकप्रियता की सीढ़ियां चढ़ चुका है। हर साल यहां आने वाले पयर्टकों की संख्या में अच्छी खासी वृद्धि हो रही है। यह मेला हस्तश्ल्पि , वास्तुकला, और लोकनृत्यों का अनोखा संगम है। यहां आने वाले वास्तुशिल्पी, हस्तशिल्पी, और लोकनर्तकों के चेहरे की संतुष्टि इशारे में ही बहुत कुछ बता जाती है। लोकनर्तकों के साथ फोटो ख्ंिाचवाने के लिए जब कोई जाता है तो वे बहुत खुश होते हैं। मेले में मिल रहे मान, सम्मान और मेहनताना से हस्तशिल्पी, वास्तुशिल्पी और नर्तक, सब काफी प्रसन्न हैं। मेले की सुरक्षा व्यवस्था पूरी तरह से चाक-चैबन्द दिखती है। मेले में प्रशासन की मुस्तैदी लोगों को सुरक्षा से बेफ्रिक करती है। आज जब पूरे समाज से मेले शब्द की धारणा खत्म होती जा रही है इस माहौल में हरियाणा सरकार द्वारा इतने बड़े मेले का सालाना सफल आयोजन वाकई एक सराहनीय प्रयास है। लेकिन मेले में महंगे खाने के स्टॅाल और 50 रूपये की टिकटें कहीं न कहीं आम आदमी को मेले में आने से रोकती है। भले ही मेला प्रशासन के अपने कुछ तर्क और मजबूरीयां हो, लेकिन अगर खाने के दामों और टिकट में कमी हो सके तो आम आदमी भी इस मेले का भरपूर मजा उठा सकता है। राज्य सरकार को इस और अवश्य ही ध्यान देना चाहिए?

कोई टिप्पणी नहीं: